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Monday, June 10, 2013

वक़्त की धुल

आज बहुत दिनों बाद
अपनी पुरानी डायरी खोली,
जब उसके पन्ने पलटे
तो हर पन्ने के साथ
पुरानी सारी बातें
चलचित्र की भांति
आँखों के सामने आ गए ,
उन बीते
प्यार भरे पलों को
साँसों मे महसूस करने लगी  ,
उनकी खुशबू मुझे
फिर से बेक़रार करने लगी,
ऐसा लगा मानो
तुमसे अभी नयी-नयी मुलाकात हुई हो
वक़्त की धुल चाहे जितनी
पड़ जाये ,
पर एहसासों मे धुल कभी नहीं जमती .......

रेवा




12 comments:

  1. 'एहसासोँ मेँ धूल कभी नहीँ जमती'. यथार्थ, जो खुद का है, सही हो सक्ता है, लेकिन लेखक का. यह सामान्य और सर्वमान्य नहीँ हो सक्ता. एहसास सभी का उसके जीवनोंन्भव का परिणाम होता है. कविता क्या कहना चाहती है- निश्कर्श नहीँ निकला. डायरी के पन्नोँ मेँ अतीत खट्टा- मीठा- कडवा- सार्थक-निरर्थक् क्या है- स्पश्ट नहीँ. अतीत पर तो धूल पडना ही अच्छा, जो लौटता नहीँ और उसे याद करना अनादरित चेक जैसा है. कविता के रूप मेँ शिल्प है-कथ्य है तो स्पश्ट नहीँ, जैसे आवरण के भीतर कुछ् नहीँ हो. मंज़र-ए-आम से पहले पूरा काम कविता पर होना ज़रूरी है रेवा जी. अन्यथा न लेँ और विचार करेँ. यह मेरी व्यक्तिगत राय है, जो अन्योँ से भिन्न हो सक्ती है, लेकिन मैँ अनावश्यक् वाह- वाह करके स्रिजनधर्मी के विकास को रोकने मेँ विश्वास नहीँ करता और खामी दिखने पर उसे इंगिट करके दुरुस्त करने मेँ ज़रूरी मदद की समझ है मेरी. प्रयास लेकिन सराहनीय है.
    मंगल कामनओँ के साथ,
    डा. रघुनाथ मिश्र्

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  2. सच्ची बात
    सार्थक अभिव्यक्ति
    God Bless U

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  3. बिल्कुल सच कहा है...वक़्त भी अहसासों को धूल से नहीं छुपा पाता...बहुत सुन्दर रचना...

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  4. बिलकुल नही जमती .........सुन्दर अभिव्यक्ति

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  5. एहसास ताज़ा रहते हैं...महकते हैं फूलों की तरह सदा....

    सुन्दर भाव !!

    सस्नेह
    अनु

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  6. भावों की अच्छी अभिव्यक्ति..शुभकामनायें

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  7. छिपे अहसास को कितने भी शब्दों से सजा लों वो अधूरे ही लगते हैं
    पर यादे ऐसी है उन्हें जितना कम याद करो तो भी वो इतने करीब रहती है कि उन्हें शब्दो की जरुरत नहीं होती


    बहुत खूब रेवा

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  8. सही कहा आपने अहसासों पर धूल कभी नहीं जमती ...

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  9. डायरी सब सहेज लेती है!

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