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Saturday, August 24, 2013

नदी के दो किनारे




तुम कहते हो न
हम नदी के
दो किनारों की तरह हैं ,
हमेशा साथ-साथ
चलतें तो हैं
पर मिलते कभी नहीं ,
काश ! कभी कहीं
कोई रास्ता निकल आता ,
पर तुम कभी ये
क्यों नहीं सोचते की
हमारे बीच नदी की
मौज़ तो है
जो तुम्हे छु कर
मुझ तक
और मुझे छु कर
तुम तक पहुँच ही जाती  है
और हमेशा ये क्रम
चलता रहता है ,
फिर क्या हम
मेहेज़ दो अलग-अलग किनारे हुए।

रेवा


16 comments:

  1. बहुत ही बेहतरीन सुन्दर कविता की प्रस्तुती,आभार।

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  2. वाह वाह
    आखिर लहरों को साहिल तक आना पड़ता है
    भले ही लौट कर सागर में क्यूँ न चला जाये।
    बहुत सुन्दर ''रेवा'' जी

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  3. रेवा जी, वास्तव में लहरें(प्यार) जल का स्थाई एवं अद्वश्य भाव है जब लहर प्रकट हो
    आगे बढकर दूसरे को जाग्रत कर छेडती है तो वह प्रत्योतर देती है.मनुष्य के अंदर का
    जल भी शायद ऐसे ही क्रिया करता होगा.अच्छी रचना.आभार

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  4. आदरणीया रेवा जी, जीवन के प्रति पाजीटिव सोच लिए सुन्दर रचना के लिए हार्दिक शुभकामनाएं !

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  5. बिलकुल सच कहा आपने बहुत सुन्दर प्रस्तुति
    latest post आभार !
    latest post देश किधर जा रहा है ?

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  6. कुछ मुझ में शामिल तुम सा है,कुछ तुम में शामिल मैं भी हूँ.....

    बहुत प्यारी रचना रेवा..
    सस्नेह
    अनु

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  7. उत्तम प्रस्तुति-
    आभार-

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  8. बिलकुल सटीक बात लिखा आपने ,नदी के किनारे अलग हों सकते हैं ,पर लहरों का क्या ,कभी इस साहिल कभी उस साहिल ...खूबसूरत |

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  9. बहुत प्यारी रचना है

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  10. ..... हर पंक्ति बेजोड़ है. सुंदर प्रस्तुति !!!

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  11. कोमल भावो की अभिवयक्ति......

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  12. बहुत सुन्दर रचना

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