मुट्ठी भर एहसास
जो हर बार
भर लेती हूँ ........
फिसल जाती है
रेत की तरह
उँगलियों के कोरों से .......
थाम लेती हूँ
सर्द आँहों को
हर रात ………
ताकि हर सुबह
फिर भर सकूँ
एहसासों को ……
जाने कब तक
चलेगा ये सिलसिला…...
अब तो आस ने भी
हवा के साथ
रुख बदलना
शुरू कर दिया है
रेवा
भावपूर्ण अहसास -- बहुत सुंदर
ReplyDeleteउत्कृष्ट प्रस्तुति
सादर
शरद का चाँद -------
बहुत गहन भावों के साथ लेखनी बहुत प्यारी है
ReplyDeletemy recent poem : सब थे उसकी मौत पर (ग़जल 2)
shukriya Rohitas ji
Deleteजज्बात किस तरह बहार आये हैं ..और शब्दों का प्रयोग बेमिसाल है
ReplyDeleteकविता ने मन को बाँध लिया .. क्या खूब लिखा है .. अंतिम पंक्तियों ने जादू कर दिया है
Bahut hi bhaawpurn rachna ... Mere blog par aapka swagat hai !!
ReplyDeleteshukriya Kuldeep ji
ReplyDeleteshukriya Rajendar ji
ReplyDeleteगहन भाव लिए बहुत ही सुन्दर रचना....
ReplyDeleteShukriya reena behen
Deleteशब्दों से भावनाओं को कैद कर लिया हो जैसे ...
ReplyDeleteबहुत अर्थपूर्ण ...
मुट्ठीभर एहसास, जैसे पीड़ा का महाकाव्य... हवा के साथ रुख बदलना, असहनीय छल। पंक्तियां जैसे गागर में सागर
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