शुरू से मुझे
चुप रहने की
आदत सी थी
पर तुमने
बोल बोल कर
खुद को
मेरी आदत बना ली ,
लफ़्ज़ों को एहसासों के
चुप रहने की
आदत सी थी
पर तुमने
बोल बोल कर
खुद को
मेरी आदत बना ली ,
लफ़्ज़ों को एहसासों के
धागे में पिरो कर
सुकूँ की चादर
बुन दी ,
हर रोज़ वो जो
खिड़की से
दिखता है न
मेरा एक टुकड़ा चाँद
उसकी चांदनी की चमक
मेरे चेहरे पर सजा दी ,
चुप रहने वाली को
तुमने हंसना बोलना
गुनगुना सीखा दिया ,
सुकूँ की चादर
बुन दी ,
हर रोज़ वो जो
खिड़की से
दिखता है न
मेरा एक टुकड़ा चाँद
उसकी चांदनी की चमक
मेरे चेहरे पर सजा दी ,
चुप रहने वाली को
तुमने हंसना बोलना
गुनगुना सीखा दिया ,
पर
मैंने अकसर सुना है की
मैंने अकसर सुना है की
आदतें बदलनी
पड़ती हैं !!!!!
पड़ती हैं !!!!!
रेवा
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन महान समाज सुधारक राजा राममोहन राय जी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteshukriya Harshvardhan ji
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (29-09-2017) को
ReplyDelete"अब सौंप दिया है" (चर्चा अंक 2742)
पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
abhar Mayank ji
Deleteshukriya dhruv ji
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeleteसुन्दर।
ReplyDeleteनाजुक एहसासों से सजी सुंदर व गहरी रचना.बहुत सुंदर
ReplyDeleteकिसी की आदत हो जाना जीवन को जीने के नए अर्थ, नए आयाम भी तो दे देता है कभी कभी....किंतु जब ये आदत बदलनी पड़ती है तब तकलीफ भी होती है !
ReplyDeleteसरल शब्दों में सब कुछ कह गई आपकी रचना !
Bahut khoob mam....
ReplyDelete