दीप जलाती है वो
ताकी ज़िन्दा रहे
ताकी ज़िन्दा रहे
उसका इकलौता बच्चा
ग़रीब जो ठहरी
ग़रीब जो ठहरी
केवल पानी से करती है
पेट भर नाश्ता
और निकल पड़ती है
किसमत के पत्थर को
पेट भर नाश्ता
और निकल पड़ती है
किसमत के पत्थर को
मजबूरी के हथौड़े से
तोड़ने
ग़रीब जो ठहरी
बरसात में टपकती है
जब उसकी झोपड़ी
हाथों के खुरदुरे बिस्तर पर
हाथों के खुरदुरे बिस्तर पर
मैली आँचल के छत्ते तले
सुलाती है बचाकर बूंदों से
सुलाती है बचाकर बूंदों से
अपने मासूम बच्चे को
वो एक माँ भी है
वो एक माँ भी है
पर ग़रीब जो ठहरी
न रगों में अब लहू है
न जिस्म में कुछ पानी
न आंखों में आंसू हैं
न जिस्म में कुछ पानी
न आंखों में आंसू हैं
न पुतलियों पर नमदारी
वो तो बस
गरीबी पहनती है
गरीबी खाती है
गरीबी ओढ़ती है
गरीबी ओढ़ती है
गरीबी बिछाती है
और एक दिन
ग़रीब संग गरीबी मर जाती है
ग़रीब संग गरीबी मर जाती है
रेवा
लाजबाव रचना गरीबी का मार्मिक और यथार्थ चित्र
ReplyDeleteजी शुक्रिया
Deleteदिल को छू गई आपकी रचना रेवा जी बहुत बढ़िया
ReplyDeleteशुक्रिया anuradha जी
Deleteबहुत खूब
ReplyDeleteशुक्रिया लोकेश जी
Deleteआभार मयंक जी
ReplyDeleteगरीबी पर बहुत ही सजीव चित्रण किया हैं आपने
ReplyDeleteशुक्रिया
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