गंगा किनारे मैं बैठी थी
चुप चाप
संवेदना शून्य सी
संवेदना शून्य सी
जब ठंडी हवाएं
मेरे बालों को हौले
से सहला रही थी तो
मुझे सिहरन नही
हो रही थी,
मेरे बालों को हौले
से सहला रही थी तो
मुझे सिहरन नही
हो रही थी,
न ही जब
एक पत्ता मेरे
गालों को चूम कर
गिरा तो मेरे गाल
सुर्ख़ हुए ....
न ही जब
खुद के ही कांधे
पर खुद सर टिकाए
चुप चाप बैठी रही
तो कुछ महसूस हुआ ,
जब सिमटने का मन
हुआ तो अपने ही
हाथों के बीच
अपने चेहरे को ढक लिया ...
ये सब मैं इसलिए
कह रही हूँ
क्योंकि
बदनसीब मैं नहीं
तुम हो जिसकी
मुझे ऐसे जगह
इतने सुहाने समय में भी
याद न आई ।
तुम हो जिसकी
मुझे ऐसे जगह
इतने सुहाने समय में भी
याद न आई ।
#रेवा
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (04-09-2018) को "काश आज तुम होते कृष्ण" (चर्चा अंक-3084) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
श्री कृष्ण जन्माष्टमी की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार
ReplyDeleteशुक्रिया
ReplyDeleteबेहतरीन रचना रेवा जी श्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएं
ReplyDeleteशुक्रिया ....आपको भी जन्माष्टमी ढेरों शुभकामनाएं
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