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Friday, September 14, 2018

मत जाया करो न




जानते हो
जब मैं
मायके जाती थी
तो लौटते समय
अक्सर ट्रेन में
गुलज़ार का लिखा ये गीत
गुनगुनाती थी
"दिल ढूँढता है फिर वही
फुर्सत के रात दिन  ......

उस समय ऐसा
लगता था
जैसे समय
बहुत धीरे
चल रहा है ?
ट्रेन की रफ़्तार
मद्धिम हो गयी है

तुम्हें देखने की तड़प
बढ़ने लगती
मन होता था दौड़ कर
तुम्हारे पास आ जाऊं
तुम्हारे सीने में सर छूपा कर
विरह में बिताये सारे दिन
एक ही पल में जी लूं

ये सोच कर मैं
हौले हौले मुस्कुराने
लगती
और मन ही मन
तुम्हें प्यार भरा पत्र
लिख डालती

जब घर आती तो
लगता की तुमने
हर्फ़ दर हर्फ़
मेरी सूरत में
वो सब पढ़ लिया
जो मैंने लिखा था
और तुम मुझे
अपने आगोश में
भर कर कहते
"मत जाया करो न "

मज़े की बात है
यही सुनने और
इस दूरी से
मिले प्यार को
बढ़ाने
मैं हर बार
चली जाती थी....

#रेवा






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