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Tuesday, February 26, 2019

सिंदूरी रोशनी




उलझे रहे हम 
ज़िन्दगी के सफर में
इस कदर
न दिन की रही खबर
न ही शाम का रहा ख्याल
थक कर हर रात बस
ख़्वाबों की गोद में
पनाह ले ली

कभी देखा ही नहीं
सुबह की सिंदूरी रोशनी
कभी सुना ही नहीं
पंछियों का कलरव
कभी महसूस नहीं किया
सुहाना मौसम

भागते रहे बस हर रोज़
चिन्ता लिए कैसे होगा सब ??
सीमित आमदनी
तो सीमित साधन
कैसे चलेगा संसार ??

पति, बच्चे और घर
का ख़याल बस यही
बन गया जीने का आधार

अब जब कभी आती है
बारी इन सब से थोड़ा सा
निकलने की तो पैर
डगमगाते हैं 

सोच, मन साथ नहीं देता
घर में एक कोना
भला सा लगता है

चाहत का चाहतों ने ही
कब का अंतिम संस्कार
कर दिया
प्यार की मद्धम रोशनी
अब बुझ गयी है
उसे बस किताबों में
पढ़ना भला लगता है

लेकिन विवेक ये
कहता है अब बस
कुछ साल
अब ख़ुद के लिए जी
और देख
जीवन की सुबह
और शाम दोनों
सिंदूरी होते हैं

#रेवा

5 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (27-02-2019) को "बैरी के घर में किया सेनाओं ने वार" (चर्चा अंक-3260) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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