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Tuesday, December 10, 2019

सोच




कभी कभी लगता है
जैसे मैं धंसती जा
रही हूँ अंधेरे कुएँ में
चाहती हूं बाहर निकलना
पर निकल नहीं पाती
कभी रोती हूँ अपने
हाल पर
पर दूसरे ही पल
मुस्कुरा देती हूँ
ये सोच कर की
रोने से क्या होगा
लेकिन फिर भी
कुछ बदल नहीं पाती
और फिर
निराशा घेर लेती है
चारों ओर से
मेरी सोच किसी
निर्णय पर पहुंच नहीं पाती
और मैं पड़ी रह जाती हूँ
उसी अंधेरे गहरे कुएँ में