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Saturday, August 27, 2011

स्त्री की विडम्बना ....

कभी जब ढूंढने 
निकलती हूँ खुद को ,
को तो पाती हूँ
अपने अन्दर 
एक मौन एक
एकाकीपन ,
एक लड़की जो
रोज़ खुद से 
लडती  रहती है ,
कभी इस एकाकीपन को
दूर करने के लिए
जुड़ जाती है
लोगों से,
नए रिश्ते बनाती
और उन से आशाएं 
करने लगती है,
हर बार टूटता
है ये भ्रम ,
पर नहीं सुधरती /
 कभी कुछ पाने की 
आशा मे,
कुछ कर गुजरने 
की चाहत मे ,
तड़पती रहती ,
पर अपने परिवार 
की जरूरतों के
आगे कुछ जरूरी 
नहीं लगता ,
या यु हो सकता 
है की ये बहाना 
हो ,कुछ न                                           
कर पाने का ,
शायद 
खुद से जुड़ना ,
खुद को जवाब 
देना , खुद से
प्यार करना ,
नहीं सीख 
पाई ..................

रेवा


5 comments:

  1. रेवा जी,
    मनोज्ञ रचना !

    खुद से
    प्यार करना ,
    नहीं सीख
    पाई ..

    सच में ! सबको प्यार सिखाते-सिखाते जिन्दगी गुजर जाती है, इन्सान को खुद से प्यार करने का मौका ही कहाँ मिलता !

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  2. heheheh chup to nalayak hotey hai
    tum to layak ho

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  3. सुन्दर रचना है रेवा.....
    कभी कभी ऐसे एहसास ज़ेहन में आते हैं...और चले भी जाते हैं...
    (हां मैं सदा रहूंगी तुम्हारी दी..)
    :-)
    सस्नेह
    अनु

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  4. shukriya di.....it means a lot to me

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