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Thursday, July 17, 2014

बंधन



लगने लगा था ऐसा कुछ
जैसे सारे बंधन
तोड़ लिए हैं तुमसे ,
अब कोई फर्क नहीं
पड़ता
बात हो या न हो ,
तुम्हारी सारी तकलीफें
अब तुम्हारी
मेरी सारी कठिनाइयाँ मेरी ,
तेरे सारे सपने तेरे अपने
और मेरे ख्वाब मेरे ,
फिर ऐसा क्यों होता है
एक दूसरे की याद
जाने अनजाने
दोनों की आँखें
नम कर जाती है ?
एक दूसरे के ख्वाबों मे
आना
अब भी क्यों जारी है ?
तुम्हारी तकलीफ भरी आवाज़
मुझे अब भी क्यों बेचैन कर जाती है ,
जब सरोकार ही नहीं
एक दूसरे से
फिर ये व्याकुलता क्यों ?

"कुछ बंधन बिना जोड़े
जुड़ जातें हैं
और टूट कर भी
जुड़े रहते हैं "


रेवा

10 comments:

  1. सुन्दर भाव प्रवाह

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  2. दिल को छू जाती है आपकी रचनाएँ और इस बार भी वही बात। बहुत सुंदर।

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  3. समय बहना समय
    सिक्का का दो पहलु
    हार्दिक शुभकामनायें

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  4. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शुक्रवार (18-07-2014) को "सावन आया धूल उड़ाता" (चर्चा मंच-1678) पर भी होगी।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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