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Wednesday, June 14, 2017

पैंतालीसवां साल 10

पैंतालीस की होने को आई
पर आज भी
मैं अपने मन का
नही कर पाती हूँ ,
चाहती हूं अलसाई सी
सुबह अख़बार और चाय
के साथ बिताना
पर हर सुबह भाग दौड़ में
बीत जाती है ,
दोपहर होते ही
मन अमृता प्रीतम की
नज़्में पढ़ने को करता है ,
पर कभी काम तो कभी
पारिवारिक जिम्मेदारी
हाथ पकड़ लेती है ,
शाम ढले कॉफी की
चुस्कियों के साथ दोस्तों
का साथ चाहती हूं
पर शामें अक़सर
बजट और बच्चों के
भविष्य की चिंता में
बिता देती हूं ,
बस रात अपनी होती है
पर सपने भी कहाँ
हमारे मन मुताबिक आते हैं ,
पैंतालीस की होने को आई
पर आज भी
मैं अपने मन का
नही कर पाती हूँ ,
पर एक ज़िद
खुद को करने की छूट दी है
कि एक दिन मैं अपने मन की
जरूर पूरी करुँगी !!

रेवा 

12 comments:

  1. बेहतरीन..
    आप सफल हों
    इसी कामना के साथ
    सादर

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  2. मन की बात बहुत सुन्दरता से कही है आपे

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    1. shukriya Meena ji....mere blog par apka swagat hai

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  3. बहुत सुन्दर कविता है।

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  4. वाकई दिल की गहराईयों को छूने वाली एक खूबसूरत.... प्रस्तुति आभार !

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  5. सटीक और सार्थक रचना

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  6. शुक्रिया onkar जी

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