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Tuesday, August 14, 2018

यादें




जानते हो 
आज मैंने
हमारे यादों को
जीने की एक
कोशिश की है

उसी पुराने 
बस में बैठी 
सीट भी वही 
मिल गई जहां
हम अक्सर बैठा करते थे
जानती हूँ .....
वो बस बहुत लंबा
रूट लेती है 
पार्क तक
पहुंचाने में
लेकिन आज भी 
वो रास्ता
तय करना
मुश्किल नहीं लगा.....

मैं अपनी कविता 
ख़ुद को ही सुनाती रही
एक पल......
ऐसा लगा मानो तुम
बगल में बैठे
मग्न हो सुन रहे हो,,,,,

बस से उतर कर
पार्क के उसी बेंच
पर बैठी तो ....
अनायास ही एक
हिचकी आयी और
दो बूंद ओस 
छलक आये
पलकों पर...... 

सर टिका लिया बेंच से
लगा जैसे तुम्हारे कांधे
पर सर रखा हो
तभी मोबाइल पर fm
सुनाने लगा
वही पुराना गीत
"जो तुम याद आये बहुत याद आये "

सब वैसे का वैसा ही
तो है
अंतर बस इतना सा है
पहले तुम बगल में
हुआ करते थे
अब मेरे अंदर रहते हो .....


#रेवा
#याद

8 comments:

  1. यादें ही तो हैं जो मौसम की तरह कई रूपों में हमारे सामने आती-जाती हैं
    बहुत सुन्दर रचना

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (15-08-2018) को "स्वतन्त्रता का मन्त्र" (चर्चा अंक-3064) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    स्वतन्त्रतादिवस की पूर्वसंध्या पर
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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  3. वाह......


    अंतर बस इतना सा है,
    पहले तुम बगल में
    हुआ करते थे
    अब मेरे अंदर रहते हो...

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