जानते हो
आज मैंने
हमारे यादों को
जीने की एक
कोशिश की है
हमारे यादों को
जीने की एक
कोशिश की है
उसी पुराने
बस में बैठी
सीट भी वही
मिल गई जहां
हम अक्सर बैठा करते थे
जानती हूँ .....
मिल गई जहां
हम अक्सर बैठा करते थे
जानती हूँ .....
वो बस बहुत लंबा
रूट लेती है
रूट लेती है
पार्क तक
पहुंचाने में
लेकिन आज भी
पहुंचाने में
लेकिन आज भी
वो रास्ता
तय करना
मुश्किल नहीं लगा.....
तय करना
मुश्किल नहीं लगा.....
मैं अपनी कविता
ख़ुद को ही सुनाती रही
एक पल......
ऐसा लगा मानो तुम
बगल में बैठे
मग्न हो सुन रहे हो,,,,,
एक पल......
ऐसा लगा मानो तुम
बगल में बैठे
मग्न हो सुन रहे हो,,,,,
बस से उतर कर
पार्क के उसी बेंच
पर बैठी तो ....
अनायास ही एक
हिचकी आयी और
दो बूंद ओस
पार्क के उसी बेंच
पर बैठी तो ....
अनायास ही एक
हिचकी आयी और
दो बूंद ओस
छलक आये
पलकों पर......
पलकों पर......
सर टिका लिया बेंच से
लगा जैसे तुम्हारे कांधे
पर सर रखा हो
तभी मोबाइल पर fm
सुनाने लगा
वही पुराना गीत
"जो तुम याद आये बहुत याद आये "
वही पुराना गीत
"जो तुम याद आये बहुत याद आये "
सब वैसे का वैसा ही
तो है
अंतर बस इतना सा है
पहले तुम बगल में
हुआ करते थे
अब मेरे अंदर रहते हो .....
#रेवा
#याद
#याद
यादें ही तो हैं जो मौसम की तरह कई रूपों में हमारे सामने आती-जाती हैं
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना
बहुत शुक्रिया
Deleteबहुत सुंदर |
ReplyDeleteशुक्रिया सुमन जी
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (15-08-2018) को "स्वतन्त्रता का मन्त्र" (चर्चा अंक-3064) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
स्वतन्त्रतादिवस की पूर्वसंध्या पर
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
शुक्रिया
Deleteवाह......
ReplyDeleteअंतर बस इतना सा है,
पहले तुम बगल में
हुआ करते थे
अब मेरे अंदर रहते हो...
शुक्रिया
Delete