सिमटी सकुची
खुद में
खुद में
अकेले तन्हा
पत्ते की गोद
पर बैठी ,
पत्ते की गोद
पर बैठी ,
सूर्य की
किरणों के साथ
किरणों के साथ
चमकती, दमकती,
इठलाती
इठलाती
मन में कई
आशाएं जगाती,
आशाएं जगाती,
हवा के थपेड़ो को
झेलती, सहती
झेलती, सहती
फिर उसी मिट्टी में
विलीन हो जाने को
आतुर रहती ....
विलीन हो जाने को
आतुर रहती ....
ओस की बूंद सी है
मेरी ज़िन्दगी.......
मेरी ज़िन्दगी.......
रेवा
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (25-08-2018) को "जीवन अनमोल" (चर्चा अंक-3074) (चर्चा अंक-2968) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार
Deleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, शुरू हो रहा है ब्लॉगरों के मिलने का सिलसिला
ReplyDelete“ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
शुक्रिया
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteआभार
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteशुक्रिया
Deleteबड़ी खूबसूरती से कही अपनी बात आपने.....
ReplyDeleteशुक्रिया संजय
DeleteThis comment has been removed by the author.
Deleteसुन्दर रचना
Deleteshukriya satish ji
Deleteशुक्रिया
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