इमरोज़ की
तरह होना
नामुमकिन है
नामुमकिन है
लफ़्ज़ों को
रंगों में घोल
यूँ इश्क की
चित्रकारी करना
नामुमकिन है
अपने इश्क को
किसी और के इश्क
में खोए देखकर भी
उससे इश्क करना
नामुमकिन है
किसी और के इश्क
में खोए देखकर भी
उससे इश्क करना
नामुमकिन है
अपनी पीठ पर हर रोज़
किसी और का नाम
लिखा जाना
फिर भी हंसते हंसते
रास्ता तय करना
नामुमकिन है
किसी और का नाम
लिखा जाना
फिर भी हंसते हंसते
रास्ता तय करना
नामुमकिन है
यूँ सालों किसी की
यादों के सहारे
उसके एक एक
सामान को
सहेज कर रखना
नामुमकिन है
यादों के सहारे
उसके एक एक
सामान को
सहेज कर रखना
नामुमकिन है
इमरोज़ बनना
नामुमकिन है
पर इश्क करना
मुमकिन है
नामुमकिन है
पर इश्क करना
मुमकिन है
#रेवा
#अमृता के बाद की नज़्म
#अमृता के बाद की नज़्म
वाह वाह
ReplyDeleteशुक्रिया
Deleteवाह बहुत ही सुन्दर रचना
ReplyDeleteशुक्रिया
Deleteबहुत ही सुन्दर रेवा जी
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (02-09-2018) को "महापुरुष अवतार" (चर्चा अंक-3082) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
श्री कृष्ण जन्माष्टमी की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार
Deleteवाह !!!!इमरोज को बखूबी परिभाषित कर उनके विलक्षण प्रेम पर बहुत सुंदर लिखा आपने | दुनिया में वहां प्रेम की समाप्ति मानी जाती है जहाँ से अमृता का इमरोज से प्रेम शुरू हुआ | बेहतरीन रचना आदरणीय रेवा जी | सादर --
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया आपका
Deleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteशुक्रिया
Delete