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Thursday, September 27, 2018

गणित


हर रोज़ टूटती हूँ 
पर हर रात ख़ुद को
फिर जोड़ लेती हूँ

ये टूटने और जोड़ने 
के गणित से
कभी ऊबती या
घबराती नहीं हूँ

क्योंकि जब जब
जोड़ती हूँ ख़ुद को
उन तमाम एहसासों को
बातों को
जिन्होंने मुझे टूटने
पर मजबूर किया
उन्हें फिर ख़ुद में
जुड़ने नहीं देती

और इस तरह
हर बार
मैं और बेहतर
बनती जाती हूँ

12 comments:

  1. बेहतरीन रचना रेवा जी

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  2. धनात्मक सोच की कविता....सुंदर

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  3. गजब
    एक बार जो आड़े आया वो फिर कभी न आया.
    सुंदर
    अतिसुन्दर
    रंगसाज़

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  4. ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 27/09/2018 की बुलेटिन, धारा 377 के बाद धारा 497 की धार में बहता समाज : ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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