हर रोज़ टूटती हूँ
पर हर रात ख़ुद को
फिर जोड़ लेती हूँ
ये टूटने और जोड़ने
के गणित से
कभी ऊबती या
घबराती नहीं हूँ
क्योंकि जब जब
जोड़ती हूँ ख़ुद को
उन तमाम एहसासों को
बातों को
जिन्होंने मुझे टूटने
पर मजबूर किया
उन्हें फिर ख़ुद में
जुड़ने नहीं देती
और इस तरह
हर बार
मैं और बेहतर
बनती जाती हूँ
बेहतरीन रचना रेवा जी
ReplyDeleteधनात्मक सोच की कविता....सुंदर
ReplyDeleteशुक्रिया
Deleteआभार
ReplyDeleteसुंदर रचना
ReplyDeleteशुक्रिया
Deleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteशुक्रिया
Deleteगजब
ReplyDeleteएक बार जो आड़े आया वो फिर कभी न आया.
सुंदर
अतिसुन्दर
रंगसाज़
शुक्रिया
Deleteब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 27/09/2018 की बुलेटिन, धारा 377 के बाद धारा 497 की धार में बहता समाज : ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteशुक्रिया
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