Pages

Thursday, January 31, 2019

गृहिणी


मैं एक गृहिणी हूँ 
सुबह के आकाश का रंग
देखना चाहती हूँ
पर नहीं पहचानती
नहीं छू पाती सूरज की
किरण
नहीं सुन पाती
मधुर संगीत
नहीं महसूस कर पाती
वो ताज़ी हवा
नहीं जी पाती सुबह

वो उठते ही दौड़ती है
रसोई में वही है
उसका आकाश
सूरज की बजाय वो
आग का रंग देखती है
संगीत की बजाय
सुनती है आवाज़ें
फरमाइशों की
टिफ़िन और नाश्ते में
परोस देती है
ताज़ी हवा

धो देती है सुकून के पल
कपड़ों के साथ
फिर सूखा देती है अपनी
ख्वाहिशें
और तह लगा कर रख
देती है अपने ख़्वाब

बच्चे बड़े हो जातें हैं
वो जवान से बूढ़ी हो
जाती है
पर ये क्रम
अनवरत चलता
रहता है जैसे
सुबह संग सूरज

#रेवा

1 comment: