क्या औरत
मर्द का तराशा हुआ
बुत है ?
जिसे वो तराशता है
चमकाता है
अपनी मर्ज़ी से
नुमाइश करता है
और फिर जब
मन भर जाये तो तोड़
देता है .......
न बिलकुल नहीं
न हम बुत हैं न मूरत
न बलिदान की देवी
न ही हम
सुपर वुमन बनने की
रेस में शामिल हैं ,
हम सोचने, समझने
हँसने और बोलने वाली
बेबाक औरतें हैं ....
रेवा
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (13-02-2018) को दही जमाना छोड़ के, रही जमाती धाक; चर्चामंच 2877 पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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महाशिवरात्रि की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार मयंक जी
Deleteसुंंदर रचना !!
ReplyDeleteशुक्रिया शुभा जी
Deleteबहुत सुंदर कविता । हाँ हम बेबाक औरते हैं।
ReplyDeleteसादर
शुक्रिया अपर्णा जी
Deleteबहुत खूब...
ReplyDeleteवाह!!!
शुक्रिया सुधा जी
Deleteशुक्रिया यशोदा बहन
ReplyDeleteकमवक्त कुछ मर्द कहाँ समझ पाते हैं इतनी सी बात
ReplyDeleteबहुत खूब!