चाहती हूँ मैं भी
नज़्म लिखना
प्रेम में पगी
जीवन से भरपूर
एहसासों में डूबी
भावनाओं से परिपूर्ण
जो पढ़ते ही ले जाए
किसी और दुनिया में
पर जब जब लिखने
बैठती हूँ
बेख़याली में
लिखने लगती हूँ
महीने का हिसाब
कितना किसको दिया
कितना बाकी है
बजट के अन्दर
सब सँभाल पा रही हूँ
या फिर इस महीने भी
महँगाई के डंडे
और ज़रूरतों से
ओवर बजट की मार
झेलनी पड़ेगी
डूब जाती हूँ फिर
इस सोच में
क्या इस बार भी
कहा सुनी हो जाएगी
खर्च को लेकर ?
या शांति से निपट जायेगा
इस महीने का हिसाब किताब
पर हर महीने
इसी सवाल में अटकी रहती हूँ
चाहती हूँ मैं भी
नज़्म लिखना
पर बेख़याली में
लिखने लगती हूँ
महीने का हिसाब !!!
रेवा
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