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Monday, October 1, 2018

वो घर कभी मेरा भी था

जहाँ मैं घर घर खेली
गुड्डे गुड़ियों की बनी सहेली
वो घर  मेरा भी था

जहाँ मैं रूठी ,इठलाई
और ज़िद्द में हर बात
मनवाई
वो घर मेरा भी था

जहां मेरे बचपन के थे संगी साथी
भईया बनता था घोड़ा हाँथी
खिलखिलाहटों की तब होती थी भरमार
वो घर मेरा भी था

लगा के बिंदिया पहन के माँ की साड़ी
करती थी खूब उधमबाज़ी
वो घर मेरा भी था

जब होती थी बीमार दुआओं की
होती थी भरमार
माँ की गोद और उनका स्पर्श रहता था
दिन भर मेरे साथ
वो घर मेरा भी था

गुस्से में अगर रहती थी भूखी
पापा की डांट से तब सबकी
सबकी जान थी सूखती
वो घर मेरा भी था

कागज़ की नाव , कीचड़ भरे पाँव
मिट्टी के घरौंदे ,खेल खिलौने
वो भईया के शिकायतों के दाँव
सब छूटे
वो घर मेरा भी था

अब वहाँ हर चीज़ है अजनबी
चुपपी ही लगती है भली
महमान कहलाते हैं जहाँ हम
मायके कह कर उसे बुलाते हैं
अब हम

#रेवा
#घर

25 comments:

  1. स्त्री मन की सत्यता को पूरी पारदर्शिता से उकेरा है आपने शुभकामनाएं

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  2. बहुत ही सुन्दर और भावपूर्ण रचना

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (03-10-2018) को "नहीं राम का राज" (चर्चा अंक-3113) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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  4. बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण कविता

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  5. बेहद खूबसूरत रचना माँ के घर की याद दिला दी आपने 👌👌 आभार रेवा जी

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  6. ये ऐसी रित किसने चलाई होगी कि लडकी को मायका छोड़ कर ससुराल जाके रहना पड़ेगा. यकीन मानिए वो लड़की का पिता तो हरगिज नहीं रहा होगा.

    क्यों लडकी बरात लेके नहीं आती
    क्यों लड़का अपना मायका छोड़ कर ससुराल नही जाता.

    हमारे बुनियादी व ठोस सामाजिक ढांचे में ही भेदभाव निहित है
    बेहतरीन रचना.

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  7. संवेदनाओं से गुथी सुन्दर कृति...

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  8. बहुत सुन्दर ,भावपूर्ण रचना...

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  9. लाजवाब रेवा जी!
    कहीं हर स्त्री के हृदय के आसपास की रचना ।

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  10. भावपूर्ण रचना , अतीत के बादलों में घुमड़ती हुई, मन में कहीं उभरती टीस ,

    बेहतरीन भावपूर्ण रचना अच्छी लगी ।

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