जहाँ मैं घर घर खेली
गुड्डे गुड़ियों की बनी सहेली
वो घर मेरा भी था
जहाँ मैं रूठी ,इठलाई
और ज़िद्द में हर बात
मनवाई
वो घर मेरा भी था
जहां मेरे बचपन के थे संगी साथी
भईया बनता था घोड़ा हाँथी
खिलखिलाहटों की तब होती थी भरमार
वो घर मेरा भी था
लगा के बिंदिया पहन के माँ की साड़ी
करती थी खूब उधमबाज़ी
वो घर मेरा भी था
जब होती थी बीमार दुआओं की
होती थी भरमार
माँ की गोद और उनका स्पर्श रहता था
दिन भर मेरे साथ
वो घर मेरा भी था
गुस्से में अगर रहती थी भूखी
पापा की डांट से तब सबकी
सबकी जान थी सूखती
वो घर मेरा भी था
कागज़ की नाव , कीचड़ भरे पाँव
मिट्टी के घरौंदे ,खेल खिलौने
वो भईया के शिकायतों के दाँव
सब छूटे
वो घर मेरा भी था
अब वहाँ हर चीज़ है अजनबी
चुपपी ही लगती है भली
महमान कहलाते हैं जहाँ हम
मायके कह कर उसे बुलाते हैं
अब हम
#रेवा
#घर
बहुत खूब
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया
Deleteअति सुन्दर
ReplyDeleteशुक्रिया
Deleteस्त्री मन की सत्यता को पूरी पारदर्शिता से उकेरा है आपने शुभकामनाएं
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया
Deleteबहुत ही सुन्दर और भावपूर्ण रचना
ReplyDeleteशुक्रिया
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (03-10-2018) को "नहीं राम का राज" (चर्चा अंक-3113) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
शुक्रिया
Deleteबहुत ही सुन्दर भावपूर्ण कविता
ReplyDeleteशुक्रिया
Deleteबेहद खूबसूरत रचना माँ के घर की याद दिला दी आपने 👌👌 आभार रेवा जी
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया
Deleteये ऐसी रित किसने चलाई होगी कि लडकी को मायका छोड़ कर ससुराल जाके रहना पड़ेगा. यकीन मानिए वो लड़की का पिता तो हरगिज नहीं रहा होगा.
ReplyDeleteक्यों लडकी बरात लेके नहीं आती
क्यों लड़का अपना मायका छोड़ कर ससुराल नही जाता.
हमारे बुनियादी व ठोस सामाजिक ढांचे में ही भेदभाव निहित है
बेहतरीन रचना.
शुक्रिया
Deleteसंवेदनाओं से गुथी सुन्दर कृति...
ReplyDeleteशुक्रिया
Deleteबहुत सुन्दर ,भावपूर्ण रचना...
ReplyDeleteशुक्रिया
Deleteशुक्रिया
ReplyDeleteलाजवाब रेवा जी!
ReplyDeleteकहीं हर स्त्री के हृदय के आसपास की रचना ।
बहुत शुक्रिया
Deleteभावपूर्ण रचना , अतीत के बादलों में घुमड़ती हुई, मन में कहीं उभरती टीस ,
ReplyDeleteबेहतरीन भावपूर्ण रचना अच्छी लगी ।
शुक्रिया
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