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Wednesday, July 11, 2018

विरह वेदना



आज मैं अपनी एक पुरानी रचना साझा कर रही हूँ .....


मैं खिड़की के कोने खड़े हो कर तेरा इंतज़ार करती
तेरे एक स्पर्श के लिए महीनों तड़पती 
तुझे याद कर के अपनी साड़ी का पल्लू भिगोती
इतना बेकरार हो जाती की तमाम कोशिशों के
बावजूद तेरी आवाज़ सुन कर गला भर आता

याद की इन्तहा होने पर
तेरे कपड़ों में पागलो की तरह तेरी खुशबू ढूंढती
और बिना बात ही हर बात पर रो पड़ती  ........

महीनों बाद जब तेरे आने की ख़बर मिलती
एक खुशी की लहर बन कर हर जगह फ़ैल जाती
मुझे लगता की मेरी खुशी, मेरी हँसी, मेरा चैन
मेरा सुकून,मेरी ज़िन्दगी आ रही है ....

पर आने के बाद तेरी वो बेरुखी, उफ्फ्फ !
तेरा मेरे एहसासों को मेरे जज्बातों को
मेरी तड़प को, नज़र अंदाज़ करना
मैं जैसी हूँ  वैसा ही छोड़ कर चले जाना .....

मुझे और भी आंसुओं मैं डुबो देता
लगता जैसे चारों तरफ़ एक शुन्य
एक सूनापन बिखर गया
जैसे जीवन सूना, आधारहीन हो गया

विरह में  वेदना सहना आसान है
पर मिलन में कैसे सहा जाए विरह वेदना ??

रेवा 




7 comments:

  1. बेहतरीन रचना
    पर आने के बाद तेरी वो बेरुखी, उफ्फ्फ !
    तेरा मेरे एहसासों को मेरे जज्बातों को
    मेरी तड़प को, नज़र अंदाज़ करना
    मैं जैसी हूँ वैसा ही छोड़ कर चले जाना ...

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    Replies
    1. बहुत बहुत शुक्रिया अनुराधा जी

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  2. विरह की निष्ठुरता और विरह के आलंबन की हृदय हीनता का साकार चित्रण वाहहह

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  3. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 12.07.18 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3030 में दिया जाएगा

    हार्दिक धन्यवाद

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