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Tuesday, July 24, 2018

दरवाज़े की ओट



रोज़ जब तुम
ऑफिस के लिए
निकलते हो तो
मैं दरवाज़े की
ओट में खड़ी हो जाती हूँ

कहती कुछ नहीं तुमसे
पर मन ही मन
तुम्हारी सेहत
तुम्हारी सलामती की
दुआ मांगती हूँ
और ये विश्वाश
दिलाती हूँ तुमको की
हमारे संसार, बच्चों
और बड़ों का मैं
पूरा ध्यान रखूंगी
ताकि जब तुम बाहर रहो
तो सुकून से भरा रहे
तुम्हारा दिल और
ये विशवास  रहे मन में की
तुम शाम को
खिलखिलाते घर और
मुस्कुराते चेहरों को देखोगे

ये इसलिए नहीं करती की
तुम पुरुष हो और मैं स्त्री
कमाना तुम्हारा धर्म और
घर संभालना  मेरा कर्तव्य
बल्कि ये इसलिए करती हूँ
क्योंकि मैं तुमसे
बेइन्तहा प्यार करती हूँ।

#रेवा



7 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (25-07-2018) को "कुछ और ही है पेट में" (चर्चा अंक-3343) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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  2. बहुत नाज़ुक अहसास लिए प्रेम को जीवन में उतारती हुई रचना ...
    बहुत सुंदर ...

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