जब इस दुनिया में
हम अकेले आते हैं
और अकेले ही जातें हैं
तो फिर हर बार
हर जगह तुम क्यों ?
हम अकेले आते हैं
और अकेले ही जातें हैं
तो फिर हर बार
हर जगह तुम क्यों ?
तुम तुम की रट छोड़ कर
मैं, अपने मैं से खुश
नहीं रह सकती क्या ??
आखरी अपने लिए
और अपने किये
हर काम के लिए तो
मैं ही जिम्मेदार हूँ न
फिर खुशी के लिए
तुम क्यों ?
मैं, अपने मैं से खुश
नहीं रह सकती क्या ??
आखरी अपने लिए
और अपने किये
हर काम के लिए तो
मैं ही जिम्मेदार हूँ न
फिर खुशी के लिए
तुम क्यों ?
चलो आज से
एक कोशिश करती हूं
तुम को आज़ादी
देती हूं
और मैं अपने मैं से
खुश रहने की शुरुआत
करती हूं ...
एक कोशिश करती हूं
तुम को आज़ादी
देती हूं
और मैं अपने मैं से
खुश रहने की शुरुआत
करती हूं ...
#रेवा
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (24-07-2018) को "अज्ञानी को ज्ञान नहीं" (चर्चा अंक-3042) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार मयंक जी
Deleteबेहतरीन रचना रेवा जी
ReplyDeleteशुक्रिया अनुराधा जी
Deleteबहुत सुंदर रचना रेवा जी...बाँधने की कोशिश में मन ज्यादा छटपटाता है....मुक्त होने का भाव खुशी भर जाता है।
ReplyDeleteसच कहा आपने ....शुक्रिया
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