हम औरतें
कवितायेँ लिखते-लिखते
कब रसोई में जा कर सब्जी
बनाने लगती हैं
आभास ही नहीं होता ......
और ज़ेहन मे पड़ी
अधूरी कविता
पक जाती है सब्जियों के साथ ....
रात जब सोने जाती हैं
ख्वाबों में फिर बुनती हैं कविता
पर सुबह होते तक
कुछ शब्द ही रहते हैं
स्मृति में
जो
नाश्ते में परोस देती हैं सबको ........
दोपहर होते ही
हमारी अभिव्यक्ति फिर
नयी उड़ान भरने लगती है.......
पर कभी अपनी थकन में
कभी दिल की जलन में
हर बार
दब कर रह जाती है
कविता !!!!!
बेहद खूबसूरत अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteshukriya kamlesh ji
Deleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "डॉ॰ कलाम साहब को ब्लॉग बुलेटिन का सलाम “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteshukriya
Deleteआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 17 अक्टूबर 2016 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteshukriya yashoda behen
Deleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल सोमवार (17-10-2016) के चर्चा मंच "शरद सुंदरी का अभिनन्दन" {चर्चा अंक- 2498} पर भी होगी!
ReplyDeleteशरदपूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
shukriya Mayank ji abhar......apko bhi sharadpurnimi ki haldik badhai
Deleteरेवा जी, बिल्कुल सही कहा आपने। महिलाओं की अपनी मर्यादाएं है...उन्हें अपने खुद से ज्यादा अपने परिवार का ख्याल रखना पडता है। सवाल सिर्फ ख्याल रखने का नही होता है, सभी का काम बराबर करने पर भी उसके अपने वक्त पर उसका अधिकार नही होता! उसको इस बात ख्याल रखना पडता है कि मैंने यदि इस वक्त हाथ में एक मिनट के लिए भी पेन ले लिया तो घर के बाकि सदस्य बुरा न मान जाए!
ReplyDeletejyoti ji mere blog par aane kay liye shukriya.....sach kaha apne
Deleteवाह, आपने एक गृहणी के मर्म को अच्छे से कविता ही कविता में कह दिया है!!
ReplyDeleteshukriya prabhat bhai
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteshukriya onkar ji
Deletenice sharing
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