प्रेम ये शब्द
राग की तरह मन के
तारों को झंकृत करता है
ध्यान मग्न योगी
जैसे ईश्वर के दर्शन पा कर
भाव विभोर हो जाता है
वैसा ही है प्रेम
मेरी समझ में
प्रेम मानसिक भी होता है और
दैहिक भी
मानसिक प्रेम हमसफर के साथ
हो ये ज़रूरी नहीं
पर दैहिक प्रेम जीवन साथी के
साथ होता ही है
ये प्रेम छुअन से उपजता है
पर तन मन धन और जीवन का साथ देता है
प्यार इस साथ में भी भरपूर होता है
पर मानसिक प्रेम में दैहिक की जगह
ही नहीं होती
इसे समझना और पाना मुश्किल है
इस प्रेम में
सारे एहसास अनछुए होते हैं
ये प्रेम ऐसा होता है जैसे
धड़कन की ध्वनि
जैसे बांसुरी को होठों में
लगा कर निकाली गई धुन
जो जीवन भर के लिए
मदहोश कर फिर
विलीन हो जाती है
ब्रह्माण्ड में कहीं ....
#रेवा
सुन्दर सृजन
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया
Deleteप्रेम की सुंदर परिभाषा रेवा जी. हार्दिक शुभकामनाएं����
ReplyDeleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार(०९-०१-२०२१) को 'कुछ देर ठहर के देखेंगे ' (चर्चा अंक-३९४१) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
--
अनीता सैनी
नमस्ते ...आभार
Deleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 08 जनवरी 2021 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआभार
Deleteबहुत सुन्दर सृजन।
ReplyDeleteशुक्रिया
Deleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteसादर
शुक्रिया
Deleteबहुत ही सुन्दर रचना
ReplyDeleteआभार
Deleteअच्छा लगा पढ़कर।
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया
Deleteसुन्दर प्रस्तुति
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ReplyDeletethanks you for sharing this article. its Amazing Article for us. your article writing skill is very good. carry on for sharing your thoughts.
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अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteप्रेम शब्द ही प्रेम की परिभाषा है।
मगर...