इश्क पाने की चाह में
भटकते भटकते
खो सी गयी हूँ
एक उम्मीद दिखती है
पर वो राह नहीं होती
वो तो गली होती है
जो निकलती है
एक और गली में
उनमें चलते चलते
उलझ सी गयी हूँ,
अब तो
डरने लगी हूँ खुद से
अपना आप
बोझ लगने लगा है...
जानती हूँ इश्क तो
खुद से करना चाहिए
अपने अन्दर ही तो
समाहित है ये ज़ज्बा
कस्तूरी की तरह
पर ये किताबी बातें
लगती हैं
मैं चाँद की चांदनी
बनने की ख़्वाहिश रखती हूँ
जैसे उन दोनों का
एक दूजे के बिना
कोई वजूद नहीं
एक दूजे के पूरक हैं वो
बस वैसे ही तो चाहती हूँ
मैं भी
पर वो मुमकिन नहीं होता
कोई वजूद नहीं
एक दूजे के पूरक हैं वो
बस वैसे ही तो चाहती हूँ
मैं भी
पर वो मुमकिन नहीं होता
और मैं इश्क पाने की चाह में
भटकते भटकते
भटकते भटकते
ख़ुद से बेज़ार
अपनी रूह को भूल
बस लिबास बन
फिर रही हूं !!
रेवा
शुक्रिया
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन प्रतिज्ञा पूरी करने का अमर दिवस : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
ReplyDeleteआभार
Deleteआभार दिलबाग जी
ReplyDeleteबढ़िया
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति
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