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Wednesday, March 7, 2018

रेगिस्तान


जीवन के रेगिस्तान में
मैं ऊंटनी बन भटकती रही
हसीन लम्हे
काटों संग फूलों जैसे मिले
उन्हें जब
कैद करना चाहा
तो वो रेत के मानिंद
फिसल गए हाथों से ....

जब रिश्तों की प्यास
से गला सूखा और प्यार
ढूंढा तब सिर्फ और
सिर्फ भ्रम हाथ लगा ....
और तब काम आया खुद की
जेब में भरा दोस्तों का प्यार ...
तपती रेत पर चलते हुए
धूप में एक साया
नज़र आया
लेकिन
जितना उसके पास जाती
वो और दूर हो जाता ,
उसके पास जाने की
कोशिश में
सूर्य की किरणों और
रेत से झगड़ कर मीलों
आगे निकल आयी
पर न वो मिला न उसकी
परछाई
वो भी रेगिस्तानी मृगतृष्णा निकला।

रेवा

15 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (09-03-2017) को "अगर न होंगी नारियाँ, नहीं चलेगा वंश" (चर्चा अंक-2904) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ९ मार्च २०१८ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  3. वाह !!! बहुत सुन्दर

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  4. वाह
    बहुत सुंदर सृजन
    सादर

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  5. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति

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  6. सजीव प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति । सुंदर .....

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  7. आभार ध्रुव जी

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