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Wednesday, July 13, 2011

मौत ही भली

अपने मन को 
कैसे समझाउँ
जिसकी चाहत है प्यार  ,
पर जिससे चाहता है 
उससे नही मिल पाता
 दुलार  ,
और जिससे मिलता है
उससे जुड़ने को 
मन नही करता
 स्वीकार ,
इस कशमकश मे 
घुटता है मन
दिल हो जाता 
है जार जार ,
आँखें बरसती हैं 
रोती हैं बार बार ,
क्या करू 
क्या ना करू 
नही समझ पाती
हैं हर बार ,
ऐसी ज़िंदगी से तो
मौत ही भली 
यही एहसास 
उमड़ते हैं ,
जब दिल हो 
जाता है बेकरार...........




रेवा

6 comments:

  1. अपने मन को
    कैसे समझाउँ
    जिसकी चाहत है प्यार ,
    पर जिससे चाहता है
    उससे नही मिल पाता
    दुलार ,
    और जिससे मिलता है
    उससे जुड़ने को
    मन नही करता
    स्वीकार ,
    Badee ajeeb-see sachhayee hai ye!

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  2. आपको मन निराश नही करना चाहिए
    अपने मनोभावों को अच्छी अभिवयक्ति दी है आपने

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  3. मुझे लगता है ऐसा भी होता है, कभी ऐसे मनोभाव भी आते हैं लेकिन जीवन चलने का नाम है और जहाँ सच्चा प्यार या दुलार है उससे जुड़कर ही मन सांत्वना पाटा सांत्वना पाता और सुखी रहता है - मनोभावों की सच्ची प्रस्तुति

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  4. भावुक करती बहुत सुन्दर रचना ...

    इस जिंदगी से मौत ही भली,
    जी लिए तो पता चला ...

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  5. This comment has been removed by a blog administrator.

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