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Friday, January 27, 2012

इंसानी फितरत

जब जब अकेली होती हूँ
जी भर कर रोती हूँ ,
कैसे बताऊ मन की व्यथा ?
रोज़ टूटती हूँ 
फिर उठ खुद को जोडती हूँ ,
उन्हें सहारा और ताक़त 
देने के लिए मजबूत 
बन जाती हूँ ,
पर उनके व्यव्हार से 
फिर टूट जाती हूँ ,
भगवान ने ऐसी फितरत 
ही बनायीं है इंसान की ,
जब वो  कमज़ोर होता है 
तो उसे प्यार नज़र आता है ,
पर वही जब ठीक  होता है 
तो सब भूल जाता है ,
ये सोचे  बिना की ,
जिसने अपना 
निरछल प्यार बरसाया 
वो तब भी वहीँ था 
और अब भी वहीँ है /


रेवा 


13 comments:

  1. सटीक अभिव्यक्ति ...

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  2. रेवा जी...
    बेहतरीन भावो का सुन्दर संगम ।

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  3. कोमल भावो की अभिवयक्ति......

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  4. कल 14/02/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  5. जब वो कमज़ोर होता है
    तो उसे प्यार नज़र आता है ,
    पर वही जब ठीक होता है
    तो सब भूल जाता है ,
    ये सोचे बिना की ,
    जिसने अपना
    निरछल प्यार बरसाया
    वो तब भी वहीँ था
    और अब भी वहीँ है!

    बहुत अच्छी अभिव्यक्ति

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  6. क्या बात कही है आपने...
    बहुत ही बेहतरीन रचना है....
    सुन्दर:-)

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