आज खुद को गले
लगा कर सोने को
जी करता है ,
अपने कंधे पर
सर रख कर
रोने को
जी करता है ,
अपने आंसुओं से
शिवालय धोने को
जी करता है ,
समुन्द्र के रेत से
बनाया था जो आशियाना
उसे समुन्द्र को
सौंपने का
जी करता है ,
बिन पहचान जीते
रहे आज तक
अब अपनी पहचान
के साथ मरने को
जी करता है ,
आज खुद को गले
लगा कर सोने को
जी करता है..........
रेवा
इंसान के अपनी खुद की पहचान जरुरी है किसी दूसरे की पहचान खुद की पहचान ज्यादा दिन तक नहीं रहती
ReplyDeleteshukriya kavita ji
Deleteदिनांक 28/03/2017 को...
ReplyDeleteआप की रचना का लिंक होगा...
पांच लिंकों का आनंदhttps://www.halchalwith5links.blogspot.com पर...
आप भी इस चर्चा में सादर आमंत्रित हैं...
आप की प्रतीक्षा रहेगी...
kuldeep ji shukriya
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (28-03-2017) को
ReplyDelete"राम-रहमान के लिए तो छोड़ दो मंदिर-मस्जिद" (चर्चा अंक-2611)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
विक्रमी सम्वत् 2074 की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
abhar mayank ji
Deleteआज सब कुछ खोने को
ReplyDeleteजी करता है
ज़िंदगी में जीत के ख़ुशी
गम भुलाने को जी करता है
कर न सका हासिल उस मंज़िल को
सोचकर रोने को जी करता है।
बहुत ही मार्मिक वर्णन सुंदर रचना ,मीठी अनुभूतिओं से ओत-प्रोत
shukriya dhruv ji
Deleteज़रूरी है ख़ुद कि पहचान ... नहीं तो मन ख़ुद को भी क़बूल
ReplyDeleteनहीं करता ...
shukriya Digamber ji
DeleteSUNDAR ABHIVYAKTI KAMNA BANI RAHE
ReplyDeleteshukriya shashi ji
DeleteAbhar digvijay ji
ReplyDeleteहम बस खुद को ही नहीं पहचान पाते....... उस पर भी हमें खुदा होने का भ्रम बना रहता हैं।
ReplyDeleteshukriya tarun ji
Deleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteshukriya onkar ji
Deleteखुद से प्यार है तो पहचान भी है।
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