कभी कभी लगता है
जैसे मैं धंसती जा
रही हूँ अंधेरे कुएँ में
चाहती हूं बाहर निकलना
पर निकल नहीं पाती
रही हूँ अंधेरे कुएँ में
चाहती हूं बाहर निकलना
पर निकल नहीं पाती
कभी रोती हूँ अपने
हाल पर
पर दूसरे ही पल
मुस्कुरा देती हूँ
ये सोच कर की
रोने से क्या होगा
लेकिन फिर भी
कुछ बदल नहीं पाती
हाल पर
पर दूसरे ही पल
मुस्कुरा देती हूँ
ये सोच कर की
रोने से क्या होगा
लेकिन फिर भी
कुछ बदल नहीं पाती
और फिर
निराशा घेर लेती है
चारों ओर से
मेरी सोच किसी
निर्णय पर पहुंच नहीं पाती
और मैं पड़ी रह जाती हूँ
उसी अंधेरे गहरे कुएँ में
निराशा घेर लेती है
चारों ओर से
मेरी सोच किसी
निर्णय पर पहुंच नहीं पाती
और मैं पड़ी रह जाती हूँ
उसी अंधेरे गहरे कुएँ में
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 12.12.2019 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3547 में दिया जाएगा । आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी ।
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
शुक्रिया
Deleteविसंगतियों में फंसे मनकी सटीक व्याख्या।
ReplyDeleteशुक्रिया
Deleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteशुक्रिया
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