सपनों में आवाज़ लगायी
धुंध में ढूंढने की कोशिश की
अपनी खुली बाँहों में
संभालना चाहा
तनहाइयों में भी
तुम्हें अपने साथ पाया
भाइयों और बहनों के
झगड़ों में तुम्हें महसूस किया
माँ की लोरी में सुना
दोस्तों के बीच भी अनुभव किया
तमाम रिश्तों के
मूल में तुम ही तो थे,
छोटी बड़ी
कविताओं में तुम
यहाँ तक की
पूरी की पूरी किताब में भी तुम
गीतों में सुना तुम्हें,
मीरा के पदों में सुना
मंदिर की भजनों में सुना
मस्जिद की आज़ानों में भी तुम थे,
प्रेम तुम किस किस रूप में
कहाँ कहाँ रहते हो ?
बताओ तो
लेकिन कभी दिखते क्यों नहीं ?
कभी तो सामने आओ न
बड़ी शिद्दत से
छूना चाहती हूँ तुम्हें
पर....कैसे ??
ये समझ नहीं पाती
क्योंकि दिमाग तो यही
कहता है
कहता है
तुम तो बस एहसास हो
महसूस तो कर सकती हूं
पर छू नहीं सकती
पर दिल मानना नहीं चाहता !!!
#रेवा
पर दिल मानना नहीं चाहता !!!
#रेवा
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteशुक्रिया
Deleteवाह👌👌👌👌🙏🙏
ReplyDeleteशुक्रिया
Deleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteदिल को काबू में रखिए।
शुक्रिया
Deleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 10 एप्रिल 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआभार
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ReplyDeleteजी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार(११-०४-२०२०) को 'दायित्व' (चर्चा अंक-३६६८) पर भी होगी
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
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अनीता सैनी
शुक्रिया
Deleteबाह्य सुंदर
ReplyDeleteशुक्रिया
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