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Sunday, January 23, 2011

एक मूर्त बिन एहसास

जब भी जिसे भी
अपना बनाया,
उसे ही
तकलीफ पहुँचाया,
जाने या अनजाने
इससे कोई
फरक नहीं पड़ता ,
पर बात तो
वही है  ,
शायद मेरे अपनेपन
या प्यार मे  कोई
कमी  है ,
अपने नसीब से
तो मै लड़ भी लू
पर  अपने
अपनों से कैसे लडू ,
कैसे उनका विश्वाश 
वापस लाऊ ,
या छोड़ दू
कोशिशे ,
पत्थर बना लू इस
दिल को ,
न तो प्यार करू
न उम्मीद ,
न दुःख दू
किसी को
न तोडू आस  ,
बस बन जाऊं
एक मूर्त बिन एहसास

रेवा


5 comments:

  1. वाह! बेहतरीन अभिव्यक्ति!

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  2. सुन्दर अभिव्यक्ति रेवा जी...!!

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  3. अपने बहुत कुछ लिखा हे अपनी पहले की कविताओं मै ,
    पर ना जाने क्यों .......
    यह कविता मुझे आपकी सबसे अच्छी कविता लगी हे जी !
    मिनी जब जब आप खुद को भीतर तक देखते हुए लिखोगी
    तबतब आपकी कविताओं मै निखर ही नहीं प्रकाश भी पनपेगा

    दादू !

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