कभी जब ढूंढने
निकलती हूँ खुद को ,
को तो पाती हूँ
अपने अन्दर
अपने अन्दर
एक मौन एक
एकाकीपन ,
एक लड़की जो
एक लड़की जो
रोज़ खुद से
लडती रहती है ,
कभी इस एकाकीपन को
दूर करने के लिए
जुड़ जाती है
लोगों से,
नए रिश्ते बनाती
और उन से आशाएं
करने लगती है,
हर बार टूटता
है ये भ्रम ,
पर नहीं सुधरती /
कभी कुछ पाने की
आशा मे,
कुछ कर गुजरने
की चाहत मे ,
तड़पती रहती ,
पर अपने परिवार
की जरूरतों के
आगे कुछ जरूरी
नहीं लगता ,
या यु हो सकता
है की ये बहाना
हो ,कुछ न
कर पाने का ,
शायद
खुद से जुड़ना ,
खुद को जवाब
देना , खुद से
प्यार करना ,
नहीं सीख
पाई ..................
रेवा
रेवा
रेवा जी,
ReplyDeleteमनोज्ञ रचना !
खुद से
प्यार करना ,
नहीं सीख
पाई ..
सच में ! सबको प्यार सिखाते-सिखाते जिन्दगी गुजर जाती है, इन्सान को खुद से प्यार करने का मौका ही कहाँ मिलता !
shukriya kamlesh ji
ReplyDeleteheheheh chup to nalayak hotey hai
ReplyDeletetum to layak ho
सुन्दर रचना है रेवा.....
ReplyDeleteकभी कभी ऐसे एहसास ज़ेहन में आते हैं...और चले भी जाते हैं...
(हां मैं सदा रहूंगी तुम्हारी दी..)
:-)
सस्नेह
अनु
shukriya di.....it means a lot to me
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