कभी कभी
मन मे विचार
तो बहुत सारे
आते हैं ,
पर न उँगलियाँ
न शब्द साथ
देते हैं ,
लगता है
शब्दों की कमी
हो गयी है ,
या फिर ये
उँगलियाँ लिख
ही नहीं पा रही ,
या फिर मन
जिस तेज़ी से
दौड़ रहा है ,
जितना कुछ
सोच रहा है ,
उन सबको
शब्दों मे
ढाल पाना
बहुत मुश्किल है ,
"बार बार लिखना चाहा ,
जानना चाहा खुद को
पर न ही लिख पाई
न ही समझ पाई खुद को
मन की व्यथा
मन मे ही दबा कर
बस जलाती रही खुद को "
रेवा