कभी कभी
मन मे विचार
तो बहुत सारे
आते हैं ,
पर न उँगलियाँ
न शब्द साथ
देते हैं ,
लगता है
शब्दों की कमी
हो गयी है ,
या फिर ये
उँगलियाँ लिख
ही नहीं पा रही ,
या फिर मन
जिस तेज़ी से
दौड़ रहा है ,
जितना कुछ
सोच रहा है ,
उन सबको
शब्दों मे
ढाल पाना
बहुत मुश्किल है ,
"बार बार लिखना चाहा ,
जानना चाहा खुद को
पर न ही लिख पाई
न ही समझ पाई खुद को
मन की व्यथा
मन मे ही दबा कर
बस जलाती रही खुद को "
रेवा
खुद को समझ पाना वाकई बहुत मुश्किल काम है
ReplyDeleteसुंदर रचना
बेहतरीन अभिव्यक्ति ..
ReplyDeletedeepak ji, rekha ji......bahut bahut shukriya
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना , बधाई
ReplyDeleteकृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारें
कभी कभी
ReplyDeleteमन मे विचार
आते हैं...
रेवा जी इतनी
सुन्दर-सुन्दर रचनाएँ
कैसे रच लेती हैं ?
ढेर सारी शुभकामनाएँ !!
areee waaahhhhhh
ReplyDeletekamleshji...shuklaji and sansac bahut bahut shukriya
ReplyDeletebahut achchha likhtii hein aap ...
ReplyDeleteshubhkaamnaayein ...
खुद को समझना जितना है जरुरी उतना मुश्किल भी - "जिन खोजा तिन पाइया गहरे पानी पैठ"
ReplyDeleteआभार तथा साधुवाद
pramod ji, rakessh ji aap dono ka bahut bahut shukriya
ReplyDeletema khud k bare me sochu to tab jab tere bare mein sochne se fursat mile
ReplyDelete"Tanha ho k b tanha nhi hota fir kya sochu apne bare mein "
wase rewa didi tusi kamaal ho akhir behan kis ki haan my my my.....
मन की व्यथा अभिव्यक्त कर पाना आसान नहीं!
ReplyDeleteसुन्दर रचना!
anupamaji...dhanyavad
ReplyDeleteRewa ji aapki har panktiyo me ik dard sa chhupa hai jo kahna to chahti hia juba par sayad tabhi ek hawa ka jhoka aata hai aur kahta hai ruk abhi itni jaldi bhi kya hai......
ReplyDeleteso good.
shrikrishna ji..bahut bahut shukriya for ur nicee words
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