आज जब छत पर खड़ी
आकाश और धरती को
निहार रही थी ,
तो अचानक ख्याल आया
की कितने दूर हैं न दोनों
एक दूजे से ,
रोज़ टकटकी लगाये
देखते रहते हैं
एक दूजे को
पर मिल नहीं पाते .......
उनकी तड़प का
अंदाज़ा लगाना मुश्किल है ........
बाँहें फैलाये धरती
बस आकाश का ही
इंतज़ार करती रहती है........
और तड़प की हद
जब पार हो जाती है
तब होती है बरसात…....
आह ! कैसी
खिल उठती है न धरती
हरी चूनड़ ओढ़
फिर वो
तन - मन
से स्वागत करती है
अपने प्यार का..........
रेवा