आज जब छत पर खड़ी
आकाश और धरती को
निहार रही थी ,
तो अचानक ख्याल आया
की कितने दूर हैं न दोनों
एक दूजे से ,
रोज़ टकटकी लगाये
देखते रहते हैं
एक दूजे को
पर मिल नहीं पाते .......
उनकी तड़प का
अंदाज़ा लगाना मुश्किल है ........
बाँहें फैलाये धरती
बस आकाश का ही
इंतज़ार करती रहती है........
और तड़प की हद
जब पार हो जाती है
तब होती है बरसात…....
आह ! कैसी
खिल उठती है न धरती
हरी चूनड़ ओढ़
फिर वो
तन - मन
से स्वागत करती है
अपने प्यार का..........
रेवा
सुन्दर भाव
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ! इसी भाव पर मेरा एक हाईकू देखिये !
ReplyDeleteबरसा पानी
धरती हुलसानी
चूनर धानी !
Wah sadhanaji bahut khoob
Deleteबहुत सुन्दर !
ReplyDeleteअच्छे दिन आयेंगे !
सावन जगाये अगन !
सुन्दर अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 31-07-2014 को चर्चा मंच पर { चर्चा - 1691 }ओ काले मेघा में दिया गया है
ReplyDeleteआभार
shukriya Dilbag ji
Deleteवाह..बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteबरसात माध्यम है धरती आकाश के मिलन का ...
ReplyDeleteबहुत खूब ...
Beautiful.
ReplyDeleteVinnie
bahut sundar ....yah pyar hi bandhe rakhta hai un dono ko
ReplyDeleteआहा अत्यंत खुबसूरत रचना
ReplyDeleteतीज की शुभकामनाएं ...बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteभावपूर्ण रचना
ReplyDeleteaap sabka bahut bahut shukriya
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