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Tuesday, November 4, 2014

ज़िन्दगी


मैं ज़िन्दगी के पन्नों को
जितना भी पढ़ने की
कोशीश करती हूँ
वो उतना ही
उलझती जाती है ….

मैंने प्यार करने की
जिससे भी कोशिश की
वो उतना ही मुझसे दूर
चला जाता है ……

मैंने दिलो जान से
जिससे भी दोस्ती निभायी
वो उतना ही अजनबी
बन जाता है …....

पर  मैं ये नहीं बोलती की
ज़िन्दगी अब तू मुझ पर रहम कर,
सितम जितने चाहे उतने कर
मैं भी फौलादी इरादे रखती हूँ
हर सितम के साथ
और मजबूती से
सामना करने को तत्पर होती हूँ.

"ऐ ज़िन्दगी खेल ले मुझसे तू
जी भर आँख मिचोली,
मैं भी डटी रहूंगी भर कर
बुलंद हौसलों की टोली "

रेवा

14 comments:

  1. जिंदगी के पन्नो को जितना
    पढ़ने की कोशिश करती हूँ वो उतना ही उलझ जाती है

    हर शब्द अपनी दास्ताँ बयां कर रहा है आगे कुछ कहने की गुंजाईश ही कहाँ है बधाई स्वीकारें

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।

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  3. कुछ ऐसी है जिंदगी...बहुत सुंदर और भावमय अभिव्यक्ति...

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  4. लाज़वाब ज़ज्बा...बहुत भावपूर्ण रचना...

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  5. Datane wala hi vijayi hota hai.... Aur jindagi to deti hai tajurbe ... Bas ye jo diye jaaye aap has ke liye jaayein ... Lajawaab abhivyakti !!

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  6. क्योंकि जिंदगी भी एक हादसा है, और हादसे में कुछ भी सम्भव है ,बहरहाल रेवाजी सुन्दर कृति हेतु आभार

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  7. रेवा जी..... बेहद गहरी अभिव्यक्ति ।

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    1. shukriya kamlesh ji kafi dino baad apka yahan aana hua..

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