पड़ा था कफ़न मे लिपटा
चार कन्धों पर जाने को तैयार ,
रो रहे थे सारे अपने
पर वो था इन सब से अनजान ,
सजा धजा कर
कर रहे थे तैयारी ,
निकलनी थी आज उसकी
इन चार कन्धों की सवारी .......
कल मेरी भी जाने की आएगी बारी
पर फिर भी इस सच से अनजान ,
मैं इस जीवन के
झूठ - सच ,लालच ,
जलन ,मेरा तेरा
और न जाने ऐसे ही कितनी चीज़ों मे ,
करती हूँ अपने आप को
उलझाने की तैयारी ,
जानते हुए भी की
पड़ी रहूंगी एक दिन मैं भी ,
करने को
इन चार कन्धों की सवारी …………
रेवा
सच्ची बात
ReplyDeleteआपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (28.11.2014) को "लड़ रहे यारो" (चर्चा अंक-1811)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।
ReplyDeleteShukriya rajendra ji
Deleteyah to hona hi hai ....yah duniya hai hi char din ka mela ....
ReplyDeleteSach kaha upasna ji
ReplyDeleteयही शाश्वत सत्य है जिससे हम जान कर भी अनजान बन जाते हैं...
ReplyDeleteजी ऍम जन कटे हुए भी अंजन रहना चाहते हैं
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति...
ReplyDeleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteShukriya mukesh ji
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