मुझे जब तुम्हारी जरूरत थी
जब मैं टूटने लगी थी
जगह जगह दरारें पड़ने लगी थी
तुम देख कर समझ न पाए
मैंने तुम्हें आवाज़ लगाई
एक बार दो बार नहीं
कई कई बार
पर हर बार अपनी
उलझनों में उलझे तुम्हें
मैं, मेरे एहसास जरूरी न लगे
पर मैं टूटी नहीं बिखरी नहीं
ख़ुद को समेटा अपनी दरारों को
भर तो न पाई पर उन्हें इस तरह
से ढका की वो खूबसूरत दिखने लगी
और मैं उनके साथ जीने लगी
आज अचानक तुम्हें मेरा ख्याल आया
तुम आये मेरे पास
पर अब मैं तुम्हें फिर से इज़ाज़त
नहीं दे पाऊँगी की तुम
उन दरारों को फिर से बदसूरत
दर्द भरा कर दो और फिर
डूब जाओ अपनी उलझनों में
मैं खुश हूँ उनके साथ अपने साथ
मैंने तुम्हें आवाज़ लगाई
ReplyDeleteएक बार दो बार नहीं
कई कई बार
पर हर बार अपनी
उलझनों में उलझे तुम्हें
मैं, मेरे एहसास जरूरी न लगे
बहुत सुन्दर सृजन....
बहुत खूब रेवा जी |यही सार्थक जीवन का स्वाभिमान है कि जख्म मिल जाए तो उन्हें बार बार कुरेदने का अवसर किसी निष्ठुर को ना दिया जये | सीखने के लिए एक ही अनुभव काफी है | सस्नेह शुभकामनायें |
ReplyDeleteजीवन के लिये यही फ़लासफ़ी सबसे उपयुक्त है.
ReplyDeleteआज अचानक तुम्हें मेरा ख्याल आया
ReplyDeleteतुम आये मेरे पास
पर अब मैं तुम्हें फिर से इज़ाज़त
नहीं दे पाऊँगी की तुम
उन दरारों को फिर से बदसूरत
दर्द भरा कर दो और फिर
डूब जाओ अपनी उलझनों में
मैं खुश हूँ उनके साथ अपने साथ
मुझे वैसे ही रहने दो..
दर्द के बावजूद आत्मविश्वास से भरी रचना ..आत्मबल को बढ़ाने वाली।
सुंदर रचना
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