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Wednesday, August 28, 2019

जरुरत



मुझे जब तुम्हारी जरूरत थी
जब मैं टूटने लगी थी
जगह जगह दरारें पड़ने लगी थी
तुम देख कर समझ न पाए

मैंने तुम्हें आवाज़ लगाई
एक बार दो बार नहीं
कई कई बार
पर हर बार अपनी
उलझनों में उलझे तुम्हें
मैं, मेरे एहसास जरूरी न लगे

पर मैं टूटी नहीं बिखरी नहीं
ख़ुद को समेटा अपनी दरारों को
भर तो न पाई पर उन्हें इस तरह
से ढका की वो खूबसूरत दिखने लगी
और मैं उनके साथ जीने लगी

आज अचानक तुम्हें मेरा ख्याल आया
तुम आये मेरे पास
पर अब मैं तुम्हें फिर से इज़ाज़त
नहीं दे पाऊँगी की तुम
उन दरारों को फिर से बदसूरत
दर्द भरा कर दो और फिर
डूब जाओ अपनी उलझनों में

मैं खुश हूँ उनके साथ अपने साथ
मुझे वैसे ही रहने दो..

5 comments:

  1. मैंने तुम्हें आवाज़ लगाई
    एक बार दो बार नहीं
    कई कई बार
    पर हर बार अपनी
    उलझनों में उलझे तुम्हें
    मैं, मेरे एहसास जरूरी न लगे
    बहुत सुन्दर सृजन....

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  2. बहुत खूब रेवा जी |यही सार्थक जीवन का स्वाभिमान है कि जख्म मिल जाए तो उन्हें बार बार कुरेदने का अवसर किसी निष्ठुर को ना दिया जये | सीखने के लिए एक ही अनुभव काफी है | सस्नेह शुभकामनायें |

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  3. जीवन के लिये यही फ़लासफ़ी सबसे उपयुक्त है.

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  4. आज अचानक तुम्हें मेरा ख्याल आया
    तुम आये मेरे पास
    पर अब मैं तुम्हें फिर से इज़ाज़त
    नहीं दे पाऊँगी की तुम
    उन दरारों को फिर से बदसूरत
    दर्द भरा कर दो और फिर
    डूब जाओ अपनी उलझनों में

    मैं खुश हूँ उनके साथ अपने साथ
    मुझे वैसे ही रहने दो..

    दर्द के बावजूद आत्मविश्वास से भरी रचना ..आत्मबल को बढ़ाने वाली।

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