तुम कहते हो न
हम नदी के
दो किनारों की तरह हैं ,
हमेशा साथ-साथ
चलतें तो हैं
पर मिलते कभी नहीं ,
काश ! कभी कहीं
कोई रास्ता निकल आता ,
पर तुम कभी ये
क्यों नहीं सोचते की
हमारे बीच नदी की
मौज़ तो है
जो तुम्हे छु कर
मुझ तक
और मुझे छु कर
तुम तक पहुँच ही जाती है
और हमेशा ये क्रम
चलता रहता है ,
फिर क्या हम
मेहेज़ दो अलग-अलग किनारे हुए।
रेवा
बहुत ही बेहतरीन सुन्दर कविता की प्रस्तुती,आभार।
ReplyDeleteGod Bless U
ReplyDeleteवाह वाह
ReplyDeleteआखिर लहरों को साहिल तक आना पड़ता है
भले ही लौट कर सागर में क्यूँ न चला जाये।
बहुत सुन्दर ''रेवा'' जी
रेवा जी, वास्तव में लहरें(प्यार) जल का स्थाई एवं अद्वश्य भाव है जब लहर प्रकट हो
ReplyDeleteआगे बढकर दूसरे को जाग्रत कर छेडती है तो वह प्रत्योतर देती है.मनुष्य के अंदर का
जल भी शायद ऐसे ही क्रिया करता होगा.अच्छी रचना.आभार
आदरणीया रेवा जी, जीवन के प्रति पाजीटिव सोच लिए सुन्दर रचना के लिए हार्दिक शुभकामनाएं !
ReplyDeleteबिलकुल सच कहा आपने बहुत सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeletelatest post आभार !
latest post देश किधर जा रहा है ?
कुछ मुझ में शामिल तुम सा है,कुछ तुम में शामिल मैं भी हूँ.....
ReplyDeleteबहुत प्यारी रचना रेवा..
सस्नेह
अनु
उत्तम प्रस्तुति-
ReplyDeleteआभार-
बिलकुल सटीक बात लिखा आपने ,नदी के किनारे अलग हों सकते हैं ,पर लहरों का क्या ,कभी इस साहिल कभी उस साहिल ...खूबसूरत |
ReplyDeleteबहुत प्यारी रचना है
ReplyDeletekhubsurat
ReplyDelete..... हर पंक्ति बेजोड़ है. सुंदर प्रस्तुति !!!
ReplyDeleteवहा बहुत बढिया
ReplyDeleteकोमल भावो की अभिवयक्ति......
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteVah kyaa baat hai?
ReplyDeleteVinnie