मन की पीड़ा
मन की उलझने
बढती जा रही हैं निरंतर ,
मन क्लांत
तन शिथिल हो गया है ,
लग रहा है
एक प्रश्न चिन्ह जी रही हूँ मैं,
सब कोशिशे नाकाम हो रही हैं
दिशाहीन सा महसूस हो रहा है ,
अंततः अपने खोल मे सिमट कर
मौन ओढ़ लिया है मैंने ,
शायद कुछ दिनों का मौन
खुद का खुद से साक्षात्कार करवा
कोई राह दिखा सके /
"ऐसे मोड़ पर ले आयी है ज़िन्दगी
हर तरफ मिली है बस रुसवाई "
रेवा
बहुत बढ़िया
ReplyDeleteशुभकामनायें आदरणीया-
बहुत बढ़िया
ReplyDeleteशुभकामनायें आदरणीया-
ReplyDeleteबिल्कुल सही भाव , मौन में बहुत ताकत होती है, सुन्दर अभिव्यक्ति ।
सुन्दर.अच्छी रचना.रुचिकर प्रस्तुति .; हार्दिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ
ReplyDeleteकभी इधर भी पधारिये ,
बहुत सुंदर रुचिकर रचना !
ReplyDeleteनई रचना : सुधि नहि आवत.( विरह गीत )
रुसवाइयों से डरना क्यों ...यही से एक नई राह निकलेगी
ReplyDeleteअँधेरी गली के आगे रौशनी है ,एक नई शुरुयात है
ReplyDeleteनई पोस्ट साधू या शैतान
latest post कानून और दंड
कुछ भी स्थायी नहीं होता बहना
ReplyDeleteधैर्य के पतवार से हर बेड़ा पार
सुबह होने के पहले रात बहुत काली होती
हार्दिक शुभकामनायें
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी का लिंक आज शनिवार (28-09-2013) को ""इस दिल में तुम्हारी यादें.." (चर्चा मंचःअंक-1382)
पर भी होगा!
हिन्दी पखवाड़े की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
shukriya Mayank ji...abhar
Deleteखुद से खुद की बात करना बड़ी बात होती है। नै राह शोध की होती है जीवन से जुडी शोध की। मौन मुखर होता रहता है ,सब कुछ यूं कहता रहता है ,अन्दर बाहर बाहर अन्दर
ReplyDeletesundar prastuti ..
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