शाम को घोंसलों कि तरफ़ उड़ान
भरने वाले पछियों के जीवन में
नयी सुबह की चहचाहट
जरूर आती है ,
पर घड़ी की टिकटिक
के साथ ,
हर काम करती एक स्त्री के
जीवन में सुबह क्यों नहीं आती ?
घर के हर सामान को
प्यार से सजाने वाली कि
ज़िन्दगी ,
क्यूँ प्यार से खाली रहती है ?
उसके मन के भावों को
क्यों उसके अपने
नहीं पढ़ पाते ?
क्यों जब वो अपने बारे
में सोचती है तो
उसे ऐसा लगता है की
वो मात्र एक यन्त्र है ?
जिसे रुकना तो दूर
बिगड़ने का भी हक़ नहीं ?
और "दिल तो यन्त्र में
होता ही नहीं" !
जब वो सबको खुश रखने की
भरपूर कोशिश करती है तो
क्यों उसे बोला जाता है की ,
"खुद को खुद से खुश रखना सीखो "
फिर घर परिवार पति बच्चों
का क्या मतलब ?
जो उसके सबसे ज्यादा
अपने होते हैं।
"क्या आप दे सकते हैं मेरे इन सवालों के जवाब "?
रेवा
shukriya Rajendra ji
ReplyDeleteरेवा जी सच का दर्पण दिखा दिया है आपने .
ReplyDeleteइन प्रश्नों के उत्तर मिल जाएँ तो दर्द ही नहीं रहेगा ... संवेदनशील प्रस्तुति
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शनिवार 03 मई 2014 को लिंक की जाएगी...............
ReplyDeletehttp://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
shukriya yashoda behen
Deleteकटु सत्य है...
ReplyDeleteकिससे कह रहीं हैं उत्तर देनो को ,अपने सुख-सुविधा के आगे जो कुछ सोचना नहीं चाहता ?
ReplyDeleteबहुत सार्थक कविता ... स्त्री सबसे बड़ी मजदूर होती है ..
ReplyDeleteawesome ....
ReplyDeleteजीवन का सत्य
ReplyDeleteshaayad koi de paaye .... kyun ki main to khud varsho se anuttarit hoon ....
ReplyDeleteGod Bless you
कुछ प्रश्नों के उत्तर देना कठिन होते हैं। बहुत सुंदर लिखा है रेवा जी
ReplyDeleteनिरुत्तर
ReplyDeleteaap sabka bahut bahut shukriya, par sawal wahin ka wahin
ReplyDeletekoi uttar nahi ...!
ReplyDeleteसार्थक बेहतरीन रचना
ReplyDeleteVery nicely expressed.
ReplyDeleteVinnie