मैं रोज़
पढ़ती हूँ कविता
कई बार कुछ ऐसा पढ़ती हूँ
जो मन को झकझोर देता है,
द्रवित कर देता है
कई बार आक्रोश से
भर देता है
कभी कभी बेअसर भी
होती हैं कविताएं
लिखती भी हूँ हर रोज़
प्रेम, विरह
धरती, आकाश
समुद्र, नदी
भूख, गरीबी
सहनशक्ति और भी
न जाने क्या क्या
लेकिन सोचती हूँ
क्या मेरी कविताएं
कुछ दे पाती है किसी को ???
क्या ये बेरोज़गार को रोज़गार
बेघर को घर
भूखे को रोटी
प्यासे को पानी
न उम्मीदों को उम्मीद
मज़लूमों को इंसाफ
विरहन को प्यार
दे पाती हैं ????
जवाब मिलता है नहीं
इनमें से कुछ भी तो नहीं
दे पाती मेरी कविताएं
पर फिर भी मैं रोज़ आती हूँ
इनके पास
क्योंकी प्यार है मुझे
कागज़ और कलम से
और विश्वास है मुझे
ये कविताएं कहीं किसी को
कुछ पल सुकून के
दे पाती मेरी कविताएं
पर फिर भी मैं रोज़ आती हूँ
इनके पास
क्योंकी प्यार है मुझे
कागज़ और कलम से
और विश्वास है मुझे
ये कविताएं कहीं किसी को
कुछ पल सुकून के
तो दे ही पाती हैं
कहीं किसी का ज़मीर भी
जगा जातीं हैं
किसी को सोचने पर मजबूर
कर देती हैं
कहीं किसी का ज़मीर भी
जगा जातीं हैं
किसी को सोचने पर मजबूर
कर देती हैं
कहीं किसी को प्यार से भर जातीं है
और हमारी आने वाली नस्लों को
हमारे जीवन से मिलवाने का
और हमारी आने वाली नस्लों को
हमारे जीवन से मिलवाने का
जरिया भी तो हैं ये कविताएं
रेवा
रेवा
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ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, अफीम सा नशा बन रहा है सोशल मीडिया “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteshukriya
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (23-06-2018) को "करना ऐसा प्यार" (चर्चा अंक-3010) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार मयंक जी
Deleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteशुक्रिया सदा जी
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteआभार onkarजी
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