कई दरवाज़े हैं
मेरे मन के अन्दर
जिन पर ताला तो है
पर उनकी चाबियाँ भी
मेरे ही पास है
हर दरवाज़े को
रोज़ खोल कर
छोड़ देती हूँ
ताकि ताज़ी हवा
जाती रहे
ऐसा करते समय मैं झांक
लेती हूँ उनके अन्दर
हर दरवाज़े के पीछे मेरे
घर के सदस्यों के
दुःख दर्द
उनकी ख्वाहिशें
छिपी होती हैं
जो झांकते ही मेरी
हो जाती है
मैं जागती हूँ तो दिन भर
मेरे साथ चलती हैं
मैं सोती हूँ तो
मेरा अवचेतन मन उसी के
बारे में सोचता रहता है
सुबह उठते ही
मैं अपने आप को
प्रभु का नाम बुदबुदाते
हुए पाती हूँ
ताकि दूर हो जाए
उन सबके दुःख दर्द
और पूरी हो सके उनकी
तमाम ख्वाहिशें !!!
रेवा
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (24-06-2018) को "तालाबों की पंक" (चर्चा अंक-3011) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार मयंक जी
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteशुक्रिया
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