नदी हूँ मैं
हाँ नदी हूँ
अविरल बहना
मेरी नियति है....
तुम
हाँ तुम
तुम भी तो समुन्द्र हो
मुझे अपने में सामना
तुम्हारी भी नियति है....
पर तुमने नियति के विरुद्ध
अपना रुख मोड़ लिया
मुझे तन्हा छोड़
अपनी मौज में बहने लगे ,
न तुमने कभी अपना
रुख मोड़ा न मेरी सुध ली
पर मैं तो नदी हूँ
सहती रही बहती रही
पर अब बस
बस
ना अब सहूंगी ना
तुझ में समाने का
इंतज़ार करूंगी
अपने वेग के साथ
अपने रास्ते बनाते हुए
अपनी नियति
बदलूंगी
#रेवा
#स्त्री
बहुत खूब ! महोदया।
ReplyDeleteशुक्रिया
Deleteबहुत ही सुन्दर रचना
ReplyDeleteshukriya
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (12-12-2018) को "महज नहीं संयोग" (चर्चा अंक-3183)) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
shukriya
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