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Friday, September 28, 2018

उर्मिला


बार बार 
लिखना चाहा
पर वो शब्द ही
नहीं मिलते जो
उर्मिला के दर्द
उसकी व्यथा
उसके विरह को
बयां कर सके

कितनी आसानी से
नव ब्याहता ने
पति के भ्राता प्रेम को
मान देकर
चौदह वर्ष की दूरी
और विरह को
बर्दाश्त करना स्वीकारा
उसपर से ये वादा कि
उसके आंखों से
आँसू भी न बहे
उफ्फ ऐसी व्यथा ...

तकलीफ़ की बात तो
ये भी है कि
इस स्त्री के सहज
त्याग को
इतिहास ने कहीं
जगह न दी
कोई उल्लेख नहीं

राम मर्यादा पुरूषोत्तम
सीता की
अग्नि परीक्षा
लक्ष्मण का भ्रात प्रेम
पर उर्मिला कुछ नहीं ....

जानती हूँ  सीता बनना
आसान नहीं
पर उर्मिला बनना
नामुमकिन है ....

पर ए स्त्री
तुम न सीता बनना
न उर्मिला
बस औरत ही रहना....

#रेवा 
#उर्मिला 

Thursday, September 27, 2018

गणित


हर रोज़ टूटती हूँ 
पर हर रात ख़ुद को
फिर जोड़ लेती हूँ

ये टूटने और जोड़ने 
के गणित से
कभी ऊबती या
घबराती नहीं हूँ

क्योंकि जब जब
जोड़ती हूँ ख़ुद को
उन तमाम एहसासों को
बातों को
जिन्होंने मुझे टूटने
पर मजबूर किया
उन्हें फिर ख़ुद में
जुड़ने नहीं देती

और इस तरह
हर बार
मैं और बेहतर
बनती जाती हूँ

Monday, September 24, 2018

मैं एक औरत हूँ



मैं एक औरत हूँ 
पर हां तुम्हारी 
ज़िम्मेदारी नहीं हूँ
मैं अपनी ज़िम्मेदारी
ख़ुद हूँ

मैं औरत हूँ
प्यार बेशुमार
है दिल में
पर उसके लिए तुमसे
भीख नहीं मांगती
वो मेरे अंदर है
मेरा इश्क़ है

मैं औरत हूँ
सहनशक्ति
बहुत है मुझमे
पर तुम्हारी ग़लत
बातों को सिर्फ परिवार
चलाने के लिए नहीं
मान सकती
परिवार तुम्हारा भी है

मैं औरत हूँ
तुम्हें जो पसंद है
वोही करूँ वैसे ही रहूं
ज़रूरी तो नहीं
मेरी पसंद नापसंद
मेरी अपनी है

मैं औरत हूँ
मुझे सिर्फ गहनों और
कपड़ों से ही प्यार है
ये तुम्हारी सबसे
बड़ी भूल है
हमे प्यार से प्यार है

मैं औरत हूँ
ये कहने की
ज़रूरत है क्योंकि
तुम बहुत सारी
ग़लतफ़हमी पाले बैठे हो

#रेवा 
#औरत 

Saturday, September 22, 2018

औरत


मैं पतंग नहीं
बनना चाहती
जिसकी डोर
किसी और के
हाथ में हो 

हवा का रुख 
जिधर हो 
उधर उसे
डोर से बंधे ही
उड़ना पड़ता हो 

कभी कभी इसी
प्रयास में गिर भी
जाती है अंधेरी
गुफ़ा में 

मैं चिड़िया बनना
चाहती हूँ
जो अपनी उड़ान
अपने हिसाब से
तय करे
और उड़ सके इस
उन्मुक्त आकाश में  ......

#रेवा
#औरत 



Thursday, September 20, 2018

कान्हा



वो जो मेरा कान्हा है न
वो बादलों के बीच
कहीं जा बैठा है
कोई सीढ़ी उस तक
अगर जाती तो मैं रोज़
पहुँच जाती

लेकिन आज एक पगडंडी
नज़र आयी है
जब आँखें बंद कर
उसके सामने बैठती हूँ न
तो वो आता है मुझसे मिलने
मुस्कुराता है अपने
अंदाज़ में और फिर
झट जा कर छिप
जाता है बादलों की
ओट में

उसकी इसी मनोहारी
रूप को देखने मैं हर
सुबह शाम उसके
सामने जा बैठती हूँ
अपनी श्रद्धा का
अलख जगाये
और तृप्त हो जाती हूँ
उसका दर्शन पा कर.....

#रेवा 
#कान्हा 



Monday, September 17, 2018

एहसासों का ख़त


भेजा था मैंने
यादों के डाकिये
के साथ तुझे
अपने एहसासों का ख़त
पर वो बैरंग
वापस आ गया ,

यादों ने बहुत ढूंढा
हर गली हर
शहर तलाश किया
पर वो पता जो
उस ख़त पर लिखा था
वो नहीं मिला ,

लगता है तुमने अपना
घर बदल लिया है ..
पर मैं तो वहीं हूँ उसी
पुराने घर, पुराने पते पर
बदलना मेरी फितरत नहीं 
ये तो जानते ही हो न तुम 

पर लगता है 
याद रखना तुम्हारी भी
आदत नहीं
ये भी अब जान गई हूँ मैं

लेकिन कोई बात नहीं 
मेरे एहसास जो तुमसे जुड़े हैं 
उन्हें सहेज कर रख लिया है 
जो मुझे सुकून देते रहेंगे 
पर तुम अब ताउम्र 
इस सुकून से महरूम रहोगे !!!!






Sunday, September 16, 2018

हरे जिल्द वाली किताब



आज पुरानी संदूक खोली
तो हाथ आया
तुम्हारा दिया हुआ
पहला और आखरी
उपहार .....
वो हरे जिल्द वाली किताब
तुम्हें पता था न
मुझे किताबें बहुत पसंद है
तभी मुझे हैरान करने
डाक से भेजा था,

लिफाफा खोलते वक्त
ये नहीं लगा था
इसमे मेरी ज़िन्दगी
कैद है  ....
मैं बार-बार किताब
खोलती थी पढ़ने
पर हर बार
अटक जाती थी
अपने नाम पर,

वो नाम
जो तुमने रखा था
उसे छूती
उसे देख मुस्कुरा कर
सुर्ख हो जाती
और फिर किताब
बंद कर रख देती ,

घंटों ख्यालों में
खोयी रहती
जाने ऐसा क्या था
उस नाम में ??
वो नाम जो तुमने
अपने हाथों से लिखा था
और उसे छु कर
तुम्हारा प्यार
तुम्हारे हाथों का स्पर्श
तुम्हारे उँगलियों की नमी
पहुँच जाती थी
मुझ तक
जो मेरा न होकर भी
मेरा है  !!!

#रेवा
#किताब





Friday, September 14, 2018

मत जाया करो न




जानते हो
जब मैं
मायके जाती थी
तो लौटते समय
अक्सर ट्रेन में
गुलज़ार का लिखा ये गीत
गुनगुनाती थी
"दिल ढूँढता है फिर वही
फुर्सत के रात दिन  ......

उस समय ऐसा
लगता था
जैसे समय
बहुत धीरे
चल रहा है ?
ट्रेन की रफ़्तार
मद्धिम हो गयी है

तुम्हें देखने की तड़प
बढ़ने लगती
मन होता था दौड़ कर
तुम्हारे पास आ जाऊं
तुम्हारे सीने में सर छूपा कर
विरह में बिताये सारे दिन
एक ही पल में जी लूं

ये सोच कर मैं
हौले हौले मुस्कुराने
लगती
और मन ही मन
तुम्हें प्यार भरा पत्र
लिख डालती

जब घर आती तो
लगता की तुमने
हर्फ़ दर हर्फ़
मेरी सूरत में
वो सब पढ़ लिया
जो मैंने लिखा था
और तुम मुझे
अपने आगोश में
भर कर कहते
"मत जाया करो न "

मज़े की बात है
यही सुनने और
इस दूरी से
मिले प्यार को
बढ़ाने
मैं हर बार
चली जाती थी....

#रेवा






Wednesday, September 12, 2018

अंतर का दीया (१)




मेरे अंतर में 
एक दीया सदा
प्रजवलित रहता है
जो मुझे हर ग़लती
में आगाह करता है

जो मेरी नकारत्मकता को
सकारात्मक ऊर्जा में
बदलता है

जो मेरे अंदर
मानवता की लौ को
किसी हाल में बुझने
नहीं देता

उस दीये की लौ की
ऊष्मा से मेरे सारे
दर्द वाश्प बन
उड़ जाते है

ये मुझे मेरी काया को
पढ़ने में मदद करता है 
और  मुझे प्यार की
खुश्बू से ओत प्रोत
रखता है

ये मेरे अंतर का दीया
मेरी काया का प्राण स्रोत है
जिस दिन ये काया मिट्टी
हो जाएगी 
उस दिन ये दीया
साईं तेरे दर पर जलेगा

#रेवा 
#अंतर का दिया 




Monday, September 10, 2018

मक़बरा


वो जीता है सालों से 
उसकी तस्वीरों
उसके ख्यालों और
अपने रंगों के साथ 

उसके लिए 
वो अभी भी इस 
दुनिया का हिस्सा है 

उसकी अलमारी 
उसकी किताबें 
उसकी तस्वीर 
सब जिंदा है 

वो दीवारों से भी 
उसकी बातें 
कर लिया करता है 

कमरे में अब भी 
उसकी खुश्बू 
मौज़ूद है
जो उसे रूहे सुखन
देती है 

वो घर उसकी यादों
का मक़बरा नहीं है 
जैसा की लोग 
कहते हैं
बल्कि उन दोनों
के प्यार का घोंसला है ....

#रेवा 
#इमरोज़ 
##अमृता के बाद की नज़्म 

Friday, September 7, 2018

देह की नौका



मैं अपनी देह को
बना कर नौका
जीवन रूपी
इस समुद्र को पार
करती हूँ
रास्ते में
आये तूफान को
झेलते हुए
लहरों के थपेड़ों से जूझती
और मजबूत बन जाती हूँ
कई बार
लपलपाती जीभ लिए
मगरमच्छों से भी
सामना हो जाता है मेरा
पर मैं टूटती नहीं हूँ
हारती नहीं हूँ
लड़ती हूं
लहूलहान करती हूँ
मारती हूं
और आगे बढ़ जाती हूँ
बीच में कई घाट भी आते हैं
जिनपर मैं ठहरती हूँ
विश्राम करती हूँ
और फिर निकल पड़ती हूँ
अपने लक्ष्य की ओर
लक्ष्य है
इस जीवन को जीना
और फिर
माटी में मिल जाना
जिस दिन उस माटी का
दीपक बन जलूँगी मैं
अपने उस कान्हा के सामने
समझ लूंगी मैं
मेरा जीवन सार्थक हुआ
सार्थक हुआ।
#रेवा
#देह

Wednesday, September 5, 2018

दोस्ती


जाने कैसे 
जाने कब
जाने क्यों
उसने मेरा मन
पढ़ लिया 

एक एक कर
मेरे मन की
सारी गिरहें
खोल कर रख दी
मेरे सामने 

आश्चर्य तो हुआ
खुशी भी हुई की
मेरे दोस्त
कितना समझते
हैं मुझे
पर एक बारगी 
दोस्त के प्यार से 
आँखें नम हो गयी...

#रेवा
#दोस्ती 

Monday, September 3, 2018

गंगा के किनारे


गंगा किनारे मैं बैठी थी 
चुप चाप
संवेदना शून्य सी
जब ठंडी हवाएं
मेरे बालों को हौले
से सहला रही थी तो
मुझे सिहरन नही
हो रही थी,

न ही जब
एक पत्ता मेरे
गालों को चूम कर
गिरा तो मेरे गाल
सुर्ख़ हुए ....

न ही जब
खुद के ही कांधे
पर खुद सर टिकाए
चुप चाप बैठी रही
तो कुछ महसूस हुआ ,

जब सिमटने का मन
हुआ तो अपने ही
हाथों के बीच
अपने चेहरे को ढक लिया ...


ये सब मैं इसलिए 
कह रही हूँ 
क्योंकि 
बदनसीब मैं नहीं
तुम हो जिसकी
मुझे ऐसे जगह
इतने सुहाने समय में भी
याद न आई ।

#रेवा

Sunday, September 2, 2018

पूर्ण और अपूर्ण


इस दुनिया में
ढूंढ़ने .. निकली तो 
पाया हर चीज़ अपूर्ण है
पूर्ण कुछ भी नहीं...

प्रेम कभी तृप्त नहीं होता
अतृप्त ही रहता है
ज्यादा कि मांग
कभी खत्म नहीं होती ,
न ही विरह
उसमें सदा
मिलन की आस होती है ,

साधक की साधना भी
अपूर्ण है
वो जीवन से दूर भागता है ,
प्रकृति भी पूर्ण नहीं तभी तो
कृत्रिम चीजों का
सहारा लेते हैं हम,

फूल उनकी
कोमलता और सुगंध
क्षणिक है ,
कोयल का संगीत
कलरव है
भाषा न होने के कारण
भावहीन संगीत जैसा,

कपोत कितने
अच्छे लगते हैं न
पर ये और अन्य पक्षी
भोजन के लिए
झगड़ते हैं
यहां तक कि
एक दूजे को खा
लेते हैं और
बड़े पक्षियों से
सदा डरे हुए से रहते हैं,
पूर्णता की तलाश
कभी पूरी नहीं होती 

अपनी परिस्थितियों के
अनुसार जीवन निर्वाह
करना ही ज़िन्दगी है
तो बस जीवन जीयो
पूर्ण होने की लालसा के बिना ....

चित्रलेखा पढ़ते हुए मिले ज्ञान के आधार पर

#रेवा
#चित्रलेखा

Saturday, September 1, 2018

इमरोज़


इमरोज़ की 
तरह होना
नामुमकिन है

लफ़्ज़ों को
रंगों में घोल
यूँ इश्क की
चित्रकारी करना
नामुमकिन है

अपने इश्क को
किसी और के इश्क
में खोए देखकर भी
उससे इश्क करना
नामुमकिन है

अपनी पीठ पर हर रोज़
किसी और का नाम
लिखा जाना
फिर भी हंसते हंसते
रास्ता तय करना
नामुमकिन है

यूँ सालों किसी की
यादों के सहारे
उसके एक एक
सामान को
सहेज कर रखना
नामुमकिन है

इमरोज़ बनना
नामुमकिन है
पर इश्क करना
मुमकिन है 

#रेवा
#अमृता के बाद की नज़्म